कब्ज की समस्या का (Treatment of constipation) 10 रामबाण इलाज अच्छे से अच्छे वैज्ञानिक भी इस सच्चाई को शायद ही नहीं जानते कि कब्ज ( महारोगों का जन्मदाता ) जैसे रोग का एक प्रमुख कारण अनाज हैं
पूर्ण अनाज पर रहने वाले लोगों को अनाज के चोकर, रेशे और खुज्जे के कारण खुलकर शौच होती हैं। गाँव के लोगों के तो बंधी हुई भी होती हैं। निश्चय ही आपको इसे पढ़ने के बाद अविश्वास तो उत्पन्न होगा ही। रिफाइंड अनाज से कब्ज के नाते को अधिकतर सभी ही जानते हैं। सभी अनाजों के ऊपर के छिलके दस्तावर गुण के माने जाते हैं,अगर इनका आहार में अभाव हैं तो कब्ज निश्चित हैं। क्योंकि आँतों को उत्तेजना नहीं मिलती।
गेहूँ के चोकर, दालों के छिलकें, बाजरा ज्वार, मक्कई जैसे सभी अनाजों के छिलके कड़े रेशे हैं। इन्हें कच्चे तो खाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। पकाने के बावजूद भी इनका रुखा और कड़ापन विशेषकर रेशों का खुरदरापन बना ही रहता हैं। प्राकृतिक आहार नरम फल और मेवों के मुकाबले अनाज के कड़े रूखे रेशे पाचन प्रणाली में ज्यादा घर्षण उत्पन्न करते हैं। यहाँ तक के अंकुरित अनाज के रेशे फल – मेवों के मुकाबले कड़े और रूखे अधिक होते हैं।
धीरे – धीरे ऐसा कड़ा अनाज खाते रहने से आँतें लगातार घर्षण के कारण सख्त और कठोर होकर अपनी सुरक्षा तो कर ही लेती हैं, लेकिन ये घर्षण लम्बे समय तक बने रहने के कारण अंत में आँतें उत्तेजना का सीमा पार कर निष्क्रिय और शिथिल हो जाती हैं। 40 – 50 साल की उम्र के बाद जो शौच कड़े रेशों के उत्तेजना के कारण खुलकर आ जाता था वही शौच अब आँतों की थकावट और शिथिलता के कारण देर से आता है या फिर किसी न किसी रेचक आहारों का सहारा लेना ही पड़ता हैं। बुढ़ापे में सभी लोग इस समस्या का सामना करते ही हैं।
ये समझकर कि यह उम्र का प्रभाव हैं, बुढ़ापे में शिथिलता आनी ही चाहिए। कोई इसबगोल खाकर, कोई त्रिफला खाकर कोई पालक मेथी की पत्तियाँ खाकर, कोई गर्म दूध पीकर कोई चाय – तंबाकू पीकर, कोई नौली उड्डियान जैसी यौगिक क्रियाएँ कर, कोई गर्म पानी पीकर, प्रत्येक बूढ़ा व्यक्ति कोई न कोई तरीका अपनाकर आँतों को उत्तेजित कर नियमित शौच लाने की कोशिश करता हैं। हमने कभी ऐसा पूछा कि क्यों हमें ऐसा करने के लिए मजबूर होना पड़ा क्या यही वास्तविकता हैं ? क्या यह स्वाभाविक हैं ? البينجو
सच्चाई इस प्रकार हैं – प्रकृति ने हमारी आँतें ही नहीं शरीर के प्रत्येक अंगों को एक जिम्मेदारी सौंपी हैं और वह उसी विशेष कार्य हेतु रचा गया हैं। प्रत्येक अंग हमारे अंतिम श्वास तक अपनी पूरी क्षमता से सक्रिय कार्य करने को कटिबद्ध हैं। जब फेफड़ा अंतिम श्वास तक पूरी श्वास लेता हैं, गुर्दे पेशाब छानते हैं, चमड़ी सुरक्षा करती हैं, पाचन तन्त्र आहार को पचाता हैं तो फिर आँत भी बिना किसी बाहरी मदद या उत्तेजना के अंतिम श्वास तक अपनी पूर्ण जिम्मेदारी निभानें के लिए बनी हैं शौच करना ही उसका धर्म हैं।
परन्तु हम गलत आहार और गलत जीवन द्वारा जब इसके साथ गलत व्यवहार या अत्याचार करते हैं तो मजबूर होकर हमारे अंगों को अतिश्रम के कारण शिथिल होना पड़ता हैं। बुढ़ापे में आँतों का ही नहीं सभी अंगो का शिथिल होना ही इस बात का ठोस सबूत हैं कि शरीर को उपयुक्त, सही प्रकृति निर्धारित आहार नहीं दिया जा रहा हैं बल्कि गलत आहार दिया जा रहा हैं। अनाज के तथा हरी पत्तियों के कड़े रेशे से उत्तेजना पाकर हम अस्वाभाविक शौच तो करवा लेते हैं, परन्तु प्रत्येक उत्तेजना की अंतिम प्रतिक्रिया शिथिल होना हैं।
40 – 50 साल की उत्तेजना का परिणाम मिलता हैं 20 – 25 साल की शिथिलता। अर्थात 100 साल की शक्ति का उपयोग आँतों ने मजबूरन उत्तेजना वश दुगनी गति से 50 साल में ही खर्च कर दिया। अब आँतें दिवालिया होकर निर्धन हो गई हैं। इसी का नाम ”कब्ज!”आँतों की उत्तेजना के 2 मुख्य कारण – (1) अनाज के कड़े रेशे द्वारा घर्षण (2) अधपचे अनाज की सड़न और अम्लता का घर्षण – लगातार घर्षण के कारण आँतों के मल को नरम करने वाली तेलीय ग्रन्थियाँ नष्ट और कठोर होकर मल को नरम नहीं कर पाती।
मल को सूखा रहकर, बवासीर, भगंदर, फिशर जैसे रोगों को पैदा करना पड़ता हैं। प्राकृतिक चिकित्सा वाले कटिस्नान में गर्म – ठंडे पानी की उत्तेजना द्वारा थकी आँतों को हंटर मार कार्य करवाते हैं। ये समझे बगैर कि आंते तो बनी ही शौच करने के लिए। वह किसी की उत्तेजना पर निर्भर नहीं, हम गलत आहार बाधाएँ हटा दें। वह सहर्ष भाग पड़ेगी अपनी जिम्मेदारी निभाने। कटिस्नान, एनिमा जैसे सभी ठंडी – गर्म चिकित्साएँ अंततया आँतों को बेकार कर देती हैं। इनका उपयोग केवल राहत मात्र के लिए 1- 2 बार उपयोग कर लेना चाहिए।
इस चिकित्सा को आदत नहीं बनाना चाहिए कई प्राकृतिक चिकत्सा के साधक जीवन भर इन चिकत्साओं में उलझे रहते हैं और सहज क्षमताओं का लाभ नहीं उठा पाते हैं। आँतों और पेट को हिलाने वाली यौगिक क्रियाएँ भी गलत आहार को ठीक करने के बजाए थकी आँतों को शौच करना सिखाते हैं। अच्छा हुआ फेफड़े और गुर्दों को प्रकृति ने भीतर कर दिया अन्यथा ये उन्हें भी हिलाकर हवा लेना और पेशाब करना सिखाते हैं। ये सभी अत्यंत मारक, हानिकारक क्रियाएँ हैं।
दो चार दिन से अधिक न करें ! सारी रेचक औषधियाँ आँतों को हंटर मार – मारकर निचोड़ देती हैं। अंत में भयंकर कब्ज का रोगी बना देती हैं। दलिया, चोकर, हरी पत्तियाँ, मिर्च मसालें या दस्त लानेवाले आहार कब्ज को और कठोर बनाकर ही छोड़ते हैं क्योंकि कब्ज का मूल कारण गलत आहार (अनाज, दूध, मांसहार) हम नहीं निकालते। प्रत्येक अनाज खाने वाला व्यक्ति अपने आहार में ऐसे किसी न किसी भोजन को अवश्य जोड़े हुए होता हैं जो किसी तरह शौच ला सकें। जितनी बार खाइए उतनी बार जाइये – आप जितनी बार खाते हैं
उतनी बार अगर शौच नहीं जाते तो निशिचित ही आप कब्ज के शिकार हैं। 3 बार खाना – 1 बार जाना भयंकर कब्ज नहीं तो और क्या हैं ? प्राकृतिक आहरी जितनी बार भोजन करते हैं उतनी ही बार उन्हें शौच जाना पड़ता हैं। गाय, बकरियों व अन्य प्राणियों में इस सत्य को क्या आप अनुभव नहीं करते ? संसार में कोई ऐसा प्राणी हैं जो बुढ़ापे में कब्ज का शिकार हैं या अन्य अंग कमजोर या शिथिल हैं ? رهان كرة القدم नहीं हैं क्योंकि वे अपना आहार प्राकृतिक आहार खाते हैं, पराया आहार नहीं ! لعبه بينجو
मानव आहार को अच्छी तरह गौर करें तो स्पष्ट हो जायेगा कि प्रकृति ने अधिकतर सभी आहारों को कोमल बनाया हैं जिसे आग में डालकर कोमल बनाने की मुर्खता नहीं करनी पड़ती। माँ का दूध कितना चिकना,कितना कोमल हैं। रसदार फल, गुद्देदार फल, ताजी अवस्था में आँतें तो आँतें जीभपर भी इनका घर्षण अत्यंत कोमल रूप से होता हैं। फल पकने के बाद फलों के बीज भी बहुत कोमल स्पंजी हो जाते हैं।इन्हें खाने पर भीतर कोई घर्षण नहीं होता।
कई कच्ची सब्जियाँ मानव आहार न होने के बावजूद हानिकारक साबित न होने के कारण जोड़ दी गई हैं। सभी हरी पत्तियाँ रेचक हैं इनमें बहुत रेशे होते हैं, ये गाय बकरियों की आँतों के लिए अधिक उचित हैं हमें कम खानी चाहिए अगर स्वाद और मस्ती से खाई जा सकें तो ! प्राकृतिक आहार जीवन में उतरते ही कब्ज और पाचन के रोगों के नाम, सिर्फ पुस्तकों में ही रह जाते हैं। सभी मेवें भीग जाने के बाद कोमल हो जाते हैं। नारियल के रेशे अधिक चर्बी के कारण भीतर बिना घर्षण फिसलते हैं।
अकुरित अनाज हानिकारक न होने के बावजूद मेवों का मुकाबुला नहीं कर पाता इसमें चर्बी नहीं के बराबर और कडापन अधिक होता हैं जो आँतों में थोड़ा घर्षण करते हैं,परन्तु सहनीय हैं।
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अनाज के रेशे सिद्ध करने के प्रयोग –
(1) 3 – 4 महीने फल मेवों पर रहने के बाद अनाज खाएँ। पेट में गड़बड़ और दस्त इसको सिद्ध कर देगी।
(2) कठोर अनाज के रेशों को नरम करने के लिए आग का सहारा लेना पड़ता हैं, फल मेंवों को नहीं, ये प्रकृतिया नरम हैं।
(3) अनाज खाने वाले को बुढ़ापे में कब्ज होना जितना निश्चित हैं – फल -मेवें खाने वाले को अंतिम श्वास तक कब्ज न होगा निशिचित हैं।
(4) अनाज खाने वालों को मल कड़े रेशों के कारण भारी होता हैं फल – मेवें का मल इनसे हल्का होता हैं।
(5) अनाज के रेशे आँतों से अधिक स्राव माँगते हैं, फल – मेवों के रेशें बहुत कम।
(6) साबुत अनाज के रेशों को मुँह में खूब चबाचबा कर तोड़ना पड़ता हैं। फल – मेवों को इनसे बहुत ही कम चबाना पड़ता हैं। जो मुहँ में अच्छी तरह नहीं टूट सकते, वह पेट में क्या टूटेंगें।
(7) अनाज के रेशों को मशीन द्वारा आटा बनवाना पड़ता हैं – फल मेवों के रेशों का आटा नहीं बनवाना पड़ता।
(8) अनाज को तोड़ने के लिए भारी मशीनों, पत्थर की चक्की का सहारा लेना पड़ता हैं – फल मेवों को नहीं।
(9) कब्ज वालों को अनाज का कड़ा रेशा खाकर शौच जारी रखना पड़ता हैं। ऐसे लोग जैसे ही फल – मेवे जैसे नरम आहार पर आते हैं,
तो कड़े रेशों की उत्तेजना की आदी हो चुकी आँतें, नरम कोमल रेशों से उत्तेजित नहीं होती, जिससे सामान्यतया यह भ्रम हो जाता हैं कि फल कब्जकारक हैं। जबकि वास्तव में अनाज की उत्तेजना से मुक्त होकर फल – मेवों द्वारा शौच सामान्य होने में एक सप्ताह के करीब लग जाता हैं। इसके ठीक विपरीत अतिसंवेदनशील आँतें अनाज के कड़े रेशों से और अधिक उत्तेजित होकर दिन भर में 3 – 4 बार शौच करती हैं वही आँतें फल मेवों के नरम रेशों के कारण अधिक शौच नहीं कर पाती।
पेचिश दस्त संग्रहणी, कोलाइटिस (आंत्र शोध) के मरीज फल खाकर मल को बाँध सकते हैं, अनाज खाकर रोग बढ़ा सकते हैं। कब्ज और दस्त अंततया फलों से ही ठीक होते हैं। इसलिए दस्तों में हल्के से हल्के रेशे वाले अनाज में चावल और दही का उपयोग किया जाता हैं। अनाज के रेशे कड़े होने का यही सबूत काफी हैं।