दालें-
दाले (Pulses and spices) वास्तव में मानव आहार न होकर बैल,गाय, घोड़ा जैसे पशुओं का आहार (चारा) है जो खूब परिश्रम कर इसे पचा सकते हैं।
मानव ने किसी तरह इसे अपने लिए खाने योग्य बना लिया। अत्यधिक मेहनत करने वाला शरीर ही इसको पचा सकता है एवं इससे उत्पन्न हानिकारक अम्ल तत्व को फ़ेंक पाता है। कम परिश्रम एवं मानसिक कार्य करने वालों को यह हानिकारक साबित होती हैं। दालें शाहकारी भोजन में सबसे अम्ल कारक खाद्य हैं, इससे उत्पन्न यूरिया, यूरिक एसिड शरीर में रुककर कई तरह के वात सम्बन्धी रोग पैदा करते हैं।
प्रोटीन,स्टार्च एक साथ होने के कारण ये शरीर में पूरी तरह कभी नहीं पचते। यही अधपचे एवं स्टार्च पेट के कई रोग पैदा करते हैं। सभी दालें अत्यंत वायुकारक (गैस पैदा करने वाली) होती हैं, इनका प्रोटीन निम्नकोटि का हैं और किसी भी दाल में सम्पूर्ण प्रोटीन नहीं सिवाय सोयाबीन के), इसलिये इन्हें किसी- न- किसी अन्न के साथ मिला कर खाना पड़ता हैं या अन्य दालों के साथ। यह दूसरे आहार पर निर्भरता ही सबसे बड़ा प्रमाण हैं कि यह मानव के लिए अनुपयुक्त हैं। पशु दाल को बिना किसी निर्भरता के पचाकर पोषण पा लेते हैं,
परन्तु मानव को दाल को पूरा करने के लिए अन्न, दालें पैदा करनी होंगी। अकेली दाल खाते रहने से मानव को कोई स्वभाविक आकर्षण नही हैं, न वह इसे नमक घी, मसालों के साथ खा पाता है। मजबूरी या आदतवश भले ही खा ले। दालें शरीर के लिए अनाज से भी ज्यादा दुष्पाच्य हैं एवं शरीर में शीघ्र जकड़न, कडापन एवं वायु पैदा करने वाला आहार है। इसके अधिक उपयोग करने से गुर्दे खराब हो जाते हैं। दालें केवल अंकुरित रूप में या हरी ताज़ी अवस्था में ही शरीर के लिए कम हानिकारक हैं परन्तु शरीर के लिए ये आवश्यक नहीं हैं। जो मानव मेहनत नहीं कर सकता, उसे दालें खानी ही नहीं चाहिए। जो मेहनत करके इसे खाना चाहता हैं,
वह भी अंत में वृद्धावस्था में इसके हानिकारक प्रभाव से बच नहीं सकते। जीवित रहने और प्रोटीन के लिए मानव पशुओं के चारे भले ही अपना लें,परन्तु वह इसके दुष्प्रभाव से बच नहीं सकता। स्वास्थ्य और शरीर के सर्वथा अनुकूल सम्पूर्ण प्रोटीनयुक्त आहार गिरियाँ एवं फल हैं।
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मसाले
मसालों Spices का हमारे आहार में कोई सम्बन्ध नहीं हैं। न ये मानव आहार हैं। ये सब औषधियाँ हैं (हल्के जहर हैं) शरीर को न तो इनकी आवश्यकता है और न इनका शरीर में कोई उपयोग या योगदान है। ये औषधियाँ हैं, औषधियों की तरह उत्तेजना देते हैं या शमन-दमन करते हैं।
पहले ये केवल विशेष रोगों में ही उपयोग होते थे परन्तु अब ये औषधियाँ जीवन में रोजमर्रा के आहार का अंग बन गये हैं जो किसी-न -किसी रूप में शरीर को केवल हानि ही पहुँचा रहे होते हैं। औषधियों (मसालों) का स्थान दवाखाना है, न कि रसोईघर। मसाले केवल इस बात का सबूत हैं कि हम वह आहार खाने का प्रयास कर रहे हैं जो स्वाभाविक अवस्था में खाया नहीं जा सकता,परन्तु मसालों द्वारा बनावटी स्वाद पैदा कर किसी तरह खाया जा सकता है।
फल-मेवा खाने के लिए मसालों की याद नहीं आयेगी,परन्तु अनाज,मांसहार,दालें या ऐसी सब्जियाँ जो न तो कच्चे खाए जा सकते हैं न ही उबालकर फीके खाये जा सकते हैं, उन्हें खाने के लिए आपको मसालों की तुरंत याद आयेगी। मसाले मृत जीभ और मृत पाचन ग्रन्थियों का आहार हैं, जिन्हें लगातार उत्तेजित कर मृत कर दिया जाता है। ये ग्रन्थियाँ फिर स्वाभाविक स्वाद नहीं ले पाती। कोई भी मसाला अकेला नहीं खाया जा सकता,क्या आप कभी हल्दी, हींग,धनिया,मिर्च, या अन्य मसाले कच्चा खाने की सोच सकते हैं ? नहीं!
आप मान लो, प्रयत्न भी कर लें तो शरीर व जीभ इस जहर, इस विजातीय आहार को एक दम मुहँ में आते ही उलट देंगे। सारा शरीर, सारी ग्रन्थियाँ इसके विरोध में खड़ी हो जायेगी और जब तक ये शरीर से बाहर नहीं निकल जायेंगे, तब तक इससे लड़ते रहेंगे। ये प्रतिरोध क्यों ?यही सबूत है इसके विजातीय होने का। फिर वही ही निर्भयता वाली बात मसालें है अन्न, नमक, मांस, सब्जियों पर और ये सभी निर्भर हैं मसालों पर। दोनों के दोनों अप्राकृतिक, असमान्य आहार हैं मानव के लिए।
जिस आहार को मसाले या नमक से खाना पड़ें,वह मानव आहार ही नहीं हैं। मसाले औषधियाँ हैं, इन्हें औषधि की तरह रोगावस्था में उपयोग चाहे तो कर लें औषधियों को जीवनसाथी बनाना घातक है। मसाले सिर्फ एक आदत है। असली, कड़क, सच्ची भूख ही स्वाभाविक स्वाद का आंनद देती है। मसाले किसी भी वस्तु के स्वाभाविक स्वाद को नष्ट कर देते हैं और अपने ही स्वाद का प्रभुत्व रखते हैं।
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