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Rambaan Aushadhi

harmful medicines
मासूम बच्चों पर निशाना-(malicious-act-of-big-drug-companies)
'रोगों का निर्माण' सिर्फ वयस्कों पर ही असर नहीं डालता बल्कि यह आपके बच्चों पर भी निशाना साधता है। एक नई पुस्तक -बोर्न विद ए जंक फूड डेफिशिएन्सी फ्लैक्स, क्वैक्स एंड हैक्स पिंप द पब्लिक हेल्थ- बड़ी-बड़ी दवा कम्पनियों की कलई खोलते हुए उनके राज बताती है कि किस तरह इनकी साजिश के तहत मनुष्य की सबसे कमजोर कड़ी, 'बाल मनोचिकित्सा' जो कभी एक साधारण सी विशेषज्ञता मानी जाती थी, आज फार्मा इंडस्ट्री के लिए एक अत्यंत सक्रिय तथा लाभदायक बाजार बन चुकी है। सिजोफ्रिनिया जैसी बीमारी से लेकर चिडचिडेपन तथा तुनकमिजाजी तक, दवा कम्पनियों के पास हर एक बच्चे के लिए कोई न कोई गोली या दवाई है। यह सब एक अच्छी मार्केटिंग का ही नतीजा है कि आज का एक छोटा बच्चा तक मनी बम में परिवर्तित हो गया है लेकिन यह हुआ कैसे? मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव जेन आलसेन कहते है कि यह बहुत ही आसान है 'बच्चों को स्कूलों में छोटी मोटी तकलीफों के लिए मेडिकल रूम से दवाए लेने के लिए दबाव डाला जाता है। घरों में दवाएं लेने के लिए उनपर माता-पिता का दबाव भी होता है। वहीं अस्पताल जाने पर डॉक्टर भी उन पर दवाएं लेने को लेकर मानसिक दबाव डालते है। इस तरह से बच्चे एक आदर्श मरीज बन जाते है अर्थात वे दवा कम्पनियों के जीवन पर्यन्त ग्राहक बन जाते है।' जेन के अनुसार, जो बच्चे शुरू में ही एडीएचडी, बायपोलर या किसी अन्य मानसिक रोगों की दवाइयां लेते है और बाद में ठीक हो जाते है। वे बहुत ही सुचारू रूप से जीवन निर्वाह करते है, लेकिन इन बच्चो में भी जीवन भर इन मानसिक रोगों को लेकर एक बहुत बड़ा भय समाया रहता है जो इनके मानसिक ,सामाजिक और भावनात्मक विकास पर भी हावी हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बचपन में ली गई दवाइयों का दुष्प्रभाव उनकी जिन्दगी के हर पहलू पर असर करता है। एक नए शोध अध्ययन के अनुसार बच्चों दी जा रही एलर्जी और अस्थमा की दवाइयों से मानसिक विकृति होने का खतरा बढ़ जाता है। जिन बच्चों के मानसिक रोगी होने का पता चलता है, वे न केवल हमेशा के लिए रोगी अपितु महंगे रोगी भी हो जाते है। उनकी दवाइयों का मासिक व्यय दस हजार अथवा उससे भी अधिक हो सकता है। फार्मा इंडस्ट्री को नि:संदेह ही सरकार तथा अन्य लोगों की मदद मिल रही है। सरकार द्वारा चलाये गए नए-नए अभियान जैसे -पोलियो कैंपेन,शिशुओं की वैक्सीनेशन, अलग-अलग जरूरी क्लिनिकल टेस्ट आदि इन फार्मा कंपनीज का काम बहुत ही आसान कर देते है। यह एक शर्मनाक बात है कि ज्यादातर मनोवैज्ञानिक सलाह लिखने में इतने व्यस्त है कि उन्हें अपनी जानकारी अपडेट करने की भी जरूरत महसूस नहीं होती। हाल ही में बीएमसी साइकाइट्री में प्रकाशित एक रिसर्च में पाया कि ज्यादातर गंभीर मानसिक रोगों से ग्रस्त किशोर व किशोरियों में विटामिन डी की कमी पाई गई है। यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है क्योंकि विटामिन डी मानसिक वृद्धि के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस रिसर्च के अनुसार विटामिन डी की कमी किशोर व किशोरियों के मानसिक रोगी होने की संभावनाओं को चार गुना बढ़ा देती है। इस रिसर्च के अनुसार,मेंटल हेल्थ क्लिनिकमें रहने वाले बच्चों में विटामिन डी की मात्रा बहुत ही खतरनाक ढंग से कम पाई गई है। किशोरियों में इनकी मात्रा केवल 20 एनजी/एमएल तथा किशोरों में 10 एनजी/एमएल पाई गई। इसकी सामान्य रेंज 30 से 74 एनजी/एमएल है। कोई भी बच्चा, जो असामान्य मानसिक और व्यवहारिक लक्षण दिखा रहा है, उसे विटामिन-डी लेवल चेक करवाना चाहिए। यह एक स्टेंडर्ड टेस्ट यानि मानक जाँच होनी चाहिए परन्तु डॉक्टरों और मनोवैज्ञानिकों द्वारा इसे नजरंदाज किया जा रहा है। कई शोध अध्ययनों ने यह साबित किया है कि विटामिन डी की कमी को दूर करने के बाद कई मानसिक रोगियों में सुधार आ गया

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