मल में बदबू आने का मूल कारण (The root cause of stool) है ये जान लो। एक और सच्चाई से शायद ही कुछ लोग अगवत होंगे कि मानव- मल प्रकृतया दुर्गन्धविहिन होता हैं।
जैसे गाय, बकरी, घोड़े, हाथी, हिरन इत्यादि शाहकारी प्राणियों का दुर्गन्ध-विहिन मल हैं। इस मल को हम हाथ से उठाकर भी फ़ेंक सकते हैं। गाय का गोबर को तो पवित्र मानकर हम न सिर्फ लेपते हैं बल्कि पंचगव्य (अमृत) मानकर प्रायश्चित, स्वरूप प्रसाद रूप में खाते भी हैं (विशेषकर हिन्दू वर्ग) जो लोग फलहार, पर रहते है उनके मल में बदबू नहीं होती आप छोटे बच्चो को ही देख लो जब तक बच्चा माँ के दूध पर रहता हैं और छ: महीने बाद फलों के रस पर तो उसके मल में उतनी बदबू नहीं होती जितनी कि उसे गाय, भैंस, बकरी के दूध या अन्न खिलाने पर आती हैं सिर्फ फलहार खाने वालो के मल में बदबू नहीं होती अन्न खाने के बाद मल बदबूदार होता हैं।
ये बात सभी माताएँ खूब अच्छी तरह जानती हैं कि बच्चों के आहार में अनाज का प्रयोग शुरू होने के बाद से ही मल में बदबू की शुरुआत हो जाती हैं भोजन में फल-सलाद की कमी होने पर,केवल अनाज की ही अधिकता होने पर यह बदबू और अधिक बढ़ जाती हैं। और इस बदबूदार मल को हमने सामान्य मानकर स्वीकार कर लिया।
अनाज और मांसहार जैसे पराये आहार जुड़ जाने के बाद ही मानव मल-मूत्र में बदबू आम बात हो गई। हमारा अपना ही मल इतना भयंकर रूप से बदबूदार हैं कि गाय के गोबर वाली रूम में शायद हम 10 मिनट गुजार लें परन्तु अपने ही पाखाने में कुछ सेकंड भारी पड़ते हैं। यही से गुदा धोने की प्रथा भी प्रचलित हुई अन्यथा प्राकृतिक आहार पर रहने वालें लोग इस वास्तविकता से अच्छी तरह परिचित है कि पेशाब करने में 60 सेकंड लग जाएँ परन्तु मल 10 सेकंड से कम समय में खिसक कर निकल जाता हैं। गुदा द्वार धोने की जरुरत ही महसूस नहीं होती,धोना भी पड़ता हैं तो केवल सफाई की दृष्टि से ! हमारा मल कितना बदबूदार होता हैं की हमें सुगन्धित साबुन का इस्तेमाल करना पड़ता हैं। हमें अपने शौचालयों में भी इत्र और सुगन्धित सामान लगवाने पड़ते हैं। पका हुआ अनाज सेवन करते हुए बदबूदार मल से हम कभी मुक्त नहीं हो सकते।
बदबू का कारण-
अनाज और दालें संयुक्त स्टार्च और प्रोटीन मेल के कारण अधपचे रहकर सड़ते हुए बाहर निकलते हैं। अन्य ठोस आहार दूध, मांस, चीनी, खटाई, फल के साथ लिए जाने पर पाचन और अधिक दुस्साध्य होता हैं। सड़न अधिक गंभीर होती हैं। 2 साल तक बच्चों में अनाज का अच्छी तरह पाचन होता ही नहीं हैं। मांसाहार भी आँतों में सड़ते हैं इसलिए मल बदबूदार होता हैं। मांसाहार नियमानुसार पचते ही शीघ्र जाना चाहिए, परन्तु आँतों में रेशे के अभाव में लम्बे समय तक रह कर सड़ जाता हैं। फल,मेवे, सलाद की तरह अनाज-दालों का शत-प्रतिशत पाचन कभी नहीं होता,अधिकतर सड़न अनाज के जटिल स्टार्च की होती हैं। क्योंकि अनाज का एक-एक कण,एक-एक अणु मुंह में अच्छी तरह न चबाए जाने के कारण पाचक रस बहुत कम मात्रा में मिल पाते हैं। और अनाज आधे-अधूरे पाचक रस के साथ भीतर खिसक जाता हैं।
अनाज अधिकतर अधपचा बाहर निकलता हैं। इसका सबसे बड़ा विस्मयकारक सबूत ये हैं कि सूअर, कुत्ते, जैसे जानवर सिर्फ आदमी का ही मल खाते हैं अन्य प्राणियों का नहीं भूख के मारे ये अधपचें अनाज को पहचान कर चट कर जाते हैं। मैदा और ब्रेड, बिस्किट आँतों में सबसे अधिक सड़ते हैं प्राकृतिक आहार का शत- प्रतिशत पाचन होता हैं, जिसके कारण सिर्फ खुज्जा रेशे ही बाहर निकालते हैं। इसी कारण वे घास- फूस की तरह दुर्गध-विहिन होते हैं। नियमानुसार हमारे शौच में सिर्फ रेशे और बीज ही निकलने चाहिए, अधपचा स्टार्च या सडा हुआ प्रोटीन नहीं। पाचन संबधित अधिकतर बीमारियाँ अनाज से जुड़ी हुई हैं।
बदबूदार मल के कारण, आंत्रशोध, टाइफाइड, पेचिश, कब्ज, बवासीर, भगंदर, गैस, अपच इत्यादि, अनाज को जारी रखते हुए पाचनतन्त्र की ये बीमारियाँ शीघ्र ठीक नहीं होती हैं जबकि प्राकृतिक आहार से शीघ्र ही ठीक हो जाती हैं। एक और बहुत आश्चर्यजनक बात हैं कि कोई वैज्ञानिक इसे चाहे तो सिद्ध कर लें। विश्व के कुछ भागों में वैज्ञानिकों ने ये प्रयोग किए कि कुछ आदमियों को केवल प्राकृतिक आहार दिया गया और कुछ आदमियों को सामान्य और माँस वाला भोजन। कुछ पौधो को खाद के रूप में प्राकृतिक आहार वाला मल और कुछ पौधो को अनाज, माँस वाला मल दिया गया।
प्रयोग बड़ा विस्मयजनक था, प्राकृतिक आहार के मल से बड़े हुए पौधें अनाज माँस वाले मल के पौधों से अधिक हरे-भरे मजबूत थे। दोनों पौधों को उखाड़ दिए जाने पर, अनाज माँस के मल वाले पौधें जितने समय से मुरझा गये- प्राकृतिक आहार के मल वाले पौधें 4 गुना अधिक समय के बाद मुरझाए। दोनों के फलों से भी यही भेद अनुभव किया गया। ऐसा ही एक प्रयोग कच्चे दूध और पाशचराइजड या उबाले हुए दूध पर रखकर किया गया-परिणामों में फिर वो ही अंतर- ये प्रयोग बिल्लियों पर किये गए थे। पौधों पर तो इनके प्रभाव देखे ही परन्तु बिल्लियाँ भी पीढ़ी दर पीढ़ी भयंकर रोगों से उलझती चली गई। और 5 - 6 पीढ़ी के बाद उनकी पीढ़ी ही समाप्त हो गई।
कच्चे दूध पर पली बिल्लियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी स्वस्थ संताने पैदा करती रही। यहाँ सोचने योग्य बात ये हैं कि हमारे आहार का प्रभाव सिर्फ शरीर पर ही नहीं पड़ता धरती पौधों और वातावरण पर भी पढ़ता हैं। हैजा, प्लेग, मलेरिया जैसी सारी महामारियों का बहुत बड़ा जिम्मेदार हमारा अपना ही बदबूदार मल-मूत्र रहा हैं। प्रयोग करके देख लिया जाए प्राकृतिक आहार वाली मल पर अधिक मक्खियाँ बैठती हैं या अनाज माँस वाली मल पर बदबूदार मल अत्यधिक होता हैं।
जिसके कारण पाखाने का सफेद पत्थर भी धीरे-धीरे गहरा पिल पड़कर खराब और विकृत हो जाता हैं। जहाँ पाखानें अच्छी तरह धोये नहीं जाते हैं, वहाँ इस बात को अच्छी तरह अनुभव कर सकते हैं। मल तो मल हमारा मूत्र भी अनाज माँस के कारण अत्यंत बदबू वाला होता हैं। क्योंकि इन आहारों की बोझ रूप अम्लता पेशाब के जरिये ही बाहर फेंकी जाती हैं। गुर्दे की सारी बीमारियों का प्रथम कारण यही अम्लता हैं जो गुर्दों में सूजन पैदा करती हैं। अम्लता का बोझ अधिक होने पर या न फेंके जाने पर भीतर रुककर पथरी का रूप धारण कर लेता हैं। गुर्दे से ये अम्लता न निकल पाई तो शरीर में वात संबंधित रोगों को पैदा करते हैं। जितनी आसानी से हम गौ- मूत्र पी सकते हैं उतनी ही आसानी से मानव-मूत्र नहीं क्योंकि गौ-मूत्र दुर्गध विहिन और हल्की अम्लता वाला होता हैं। अनाज और माँस जुड़ जाने के बाद ही हमारे मल-मूत्र में बदबू और विकार शुरू हुए।
माँसाहारी का पसीना सबसे अधिक बदबूदार होता हैं। दूसरे नम्बर पर अन्नहारी का, फलहारी के पसीने में बदबू बिलकुल नहीं होती हैं बल्कि सुगंध होती हैं। पसीने की बदबू के लिए भी अनाज और माँस ही जिम्मेदार हैं। शरीर से विविध मल-मार्गो (फेफडे, आँतें, साइनस, गर्भाशय, कान) से निकलने वाले श्लेष्मा कफ का मूल कारण अधपचा अनाज हैं।
अनाज प्रकृतया श्लेष्माकारक खाद्य हैं- कफ और वात सबंधित बीमारियों में अनाज को जारी रखते हुए रोगमुक्त होना ही असंभव हैं- अनाज इन रोगों की कमी ठीक होने नहीं देता, इसलिए उम्र के साथ ये रोग बढ़ते ही चले जाते हैं, साथ ही असफल उपचार भी प्राकृतिक आहार से शीघ्र ही इन रोगों से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाती हैं।