सकारात्मकता (Positivity) से हराए हर बीमारी को। कई वर्षो पहले टीबी एक जानलेवा बीमारी थी। उस समय जिस व्यक्ति को टीबी हो जाये उसका मरना लगभग तय था।
उस वक्त टीबी के रोगी की मृत्यु 6 से 7 महीनों में हो जाती या फिर कोई सालभर में चल बसता था। 1949 में टीबी की दवाई की खोज की गई, परन्तु दुनियाभर में इस दवाई को हर आम आदमी तक पहुँचने में लगभग तीस साल लग गये। पचास,साठ और सत्तर के दशक तक भारत में अगर किसी को टीबी हो जाता था तो लोग उसे उसकी मृत्यु का ही आगमन समझते थे। जाँच की रिपोर्ट आने पर अगर वह टीबी का रोगी पोजिटिव निकल जाता तो मरीज आधा तो डर से ही मर जाता था। टीबी की इसी दहशत की एक घटना साठ के दशक की है फ्राँस के टीबी हॉस्पिटल की। उस हॉस्पिटल के अंदर चालीस से पचास कमरे थे। वहाँ टीबी के जितने मरीज भर्ती होते थे उनमें से से तीस प्रतिशत मरीज ही ठीक होकर घर जा पाते थे बाकि सत्तर प्रतिशत मरीज उन्ही दवाईयों को खाने के बाद भी मर जाते थे। डाक्टरों के लिये भी इनकी मृत्यु होना एक चुनौती बन गया था। सभी डॉक्टरों को समझ नही आ रहा था कि टीबी के सभी मरीजों को एक सी दवाइयाँ देने पर भी कुछ लोग बिल्कुल ठीक हो जाते है और कुछ लोग बच नही पाते। एक बार जब इस विषय पर एक जरूरी मीटिंग हुई तब उस मीटिंग में एक नर्स बोली, क्या आप लोगो ने एक बात नोटिस की है? पीछे की तरफ जो बारह कमरे बने है उन कमरों में आजतक कोई मौत नही हुई ..वहाँ जितने भी मरीज आये सभी ठीक होकर घर गये !नर्स की इस बात से पूरा हॉस्पिटल सहमत था। ऐसा क्यूँ होता है ये जानने के लिये एक मनोचिकित्सक को बुलाया गया। पूरे अस्पताल का अच्छे से मुआयना करके मनोचिकित्सक ने बताया टीबी एक -दुसरे को छूने से फैलने वाली बीमारी है इसलिये आप रोगी को रूम में अकेला ही रखते है। दिन में एक बार डॉक्टर और तीन-चार बार नर्स जरुर जाती है चेकअप करने के लिए। बाकि पूरे दिन रोगी अकेला ही रहता है। टीबी से कमजोर हो चुका मरीज पूरे दिन अपने बिस्तर पर पड़ा खिड़की से बाहर देखता रहता है। आगे की तरफ जो 28 कमरे बने है, उनकी खिड़की से बाहर देखने पर खाली मैदान,दो चार बिल्डिंग और दूर तक आसमान दिखाई देता है। मौत की आहट से डरे हुए रोगी को खिड़की के बाहर का ये सूनापन उसे और तनाव में ला देता है जिससे उसकी खुद को जीवित रखने की इच्छा शक्ति खत्म हो जाती है। फिर उस पर कोई मेडिसन्स भी काम नहीं करती है और उसकी मौत हो जाती है। जबकि पीछे की तरफ जो कमरे बने है उनके बाहर की और बड़ा बगीचा बना हुआ है। जहाँ सैकड़ो पेड़ और पौधें लगे हुए है पेड़ो की पत्तियों का झड़ना, फिर नयी पत्तियाँ आना, उनका लहराना तरह तरह के फूल खिलना ये सब खिड़की से बाहर देखने वाले मरीजों की सोच भी पॉजिटिव हो जाती है। इन पेड़ पौधों को देखकर वो खुश रहते है,मुस्कुराते रहते है,उन्हें हर पल अपनी संभावित मृत्यु का ख्याल नही आता। यही कारण है कि उन मरीजों पर यही मेडिसन बहुत अच्छा असर करती है और वो ठीक हो जाते है। पॉजिटिव एनर्जी और पॉजिटिव सोच व्यक्ति को विपरीत परिस्थितियों में भी जीवित रख सकती है। देश कोरोना से तो लड़ ही रहा है साथ ही जरूरी है इस लंबी लड़ाई में अपनी सोच को रखने की पॉजिटिव ताकि हमारी 'दृढ इच्छा शक्ति हमेशा बनी रहे। ताली बजाकर आभार जताना हो या दिये जलाकर खुद को देश के साथ खड़ा दिखाने की कवायद हो ये आपकी सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाने की कोशिश ही है ना तब फ्राँस के उस हॉस्पिटल में उन पेड़-पौधों से मरीज ठीक हुए थे और ना ही आज भारत में दिये जलाने से कोरोना का ईलाज हो जायेगा लेकिन इस लड़ाई में वही जीतेगा जो सकारात्मकता से भरा होगा निगेटिव लोग तो वैसे भी खुद के और समाज के दुश्मन होते ही है। इसीलिए सकारात्मक रहिये और स्वस्थ जीवन जिएं। धन्यवाद