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Rambaan Aushadhi

Illusion of strength from grain
अनाज से ताकत का भ्रम-(Illusion of strength from grain)

अनाज तुरंत न छोड़ पाने के पीछे एक और बहुत बड़ा भय भीतर चल रहा होता हैं कि अनाज के बिना ताकत कहाँ से आयेगी? हल्के-फुल्के फलों से भला कहीं ताकत आती हैं? आइये इस निर्मूल अंधविश्वास या भ्रम को भी उखाड़कर फ़ेंक दें। विश्व के कुछ नाम-मात्र वैज्ञानिक ही शक्ति या ताकत के वास्तविक मूल-स्त्रोत से परिचित हुए हैं अन्यथा पूरा वैज्ञानिक जगत अभी तक शक्ति की वास्तविकता से कोसों दूर हैं,भयंकर अन्धकार में हैं। केवल यही नहीं सभी लोग अधूरे, भ्रमकारक अनुभव ढो रहे हैं।
आयुर्वेद भी इस मामले में पिछड़ा हुआ हैं। यह विषय अपने आप में गंभीर हैं विस्तृत व्याख्या चाहता हैं फिर भी हम बहुत संक्षिप्त में इसे समझने की कोशिश करेंगे। प्रकृति उससे ने सभी प्राणियों में ऐसी एक अनोखी जीवन शक्ति भरी हैं कि सभी प्राणी इसका भरपूर आनन्द लूट रहे होते हैं। पक्षियों को, हिरण, शेर, हाथी या घोड़े किसी भी प्राणी को देख लें सभी में शक्ति की अलग-अलग विशेषताएँ भरी पड़ी हैं।

ये सभी प्राणी अपने निर्धारित आहार का सेवन कर, प्राकृतिक जीवन जीकर इस शक्ति का लाभ उठा रहे होते हैं। मानव शरीर में भी प्रकृति ने ऐसी ही अनोखी शक्तियाँ भरी हैं। जन्म से लेकर बुढ़ापे तक ले जाने वाली शक्ति प्राण- शक्ति हैं और रोजमर्रा के लिए उपयोग होने वाली शक्ति जीवनी शक्ति हैं जो हमारे आहार- विहार अनुसार घटती बढ़ती रहती हैं।
हम जब प्रकृति के नियम के साथ जीते हुए प्राकृतिक आहार-विहार द्वारा शरीर की मूलभूत आवश्कताओं की पूर्ति करते रहते है तो उत्पन्न होती हैं एक भरपूर शक्ति, एक भरपूर ऊर्जा, जब तक शरीर की उपरोक्त आवश्यकताएँ पूरी होती रहती हैं तब तक यह भरपूर ऊर्जा निर्बाध रूप से मिलती ही चली जाती हैं।
इस अथक,असीम शक्ति की जानकारी सिर्फ कुछ ही ऋषि मुनियों, महात्माओं को,वैज्ञानिकों को अनुभव हुई हैं। सामान्य मानव भी इस महाशक्ति का प्रकृतया अधिकारी हैं वह भी पक्षियों- हिरणो की तरह उसका पूरा लाभ उठा सकता हैं बशर्ते वह इस शक्ति में अवरोध या बाधाएँ उत्पन्न नहीं करें प्रकृति के नियमों के साथ जीने वाला व्यक्ति ही तो महात्मा कहलाता हैं वह नियमों को जानकर चल पड़ता हैं और लाभान्वित हो जाता है हम अनजान हैं या जानते हुए भी चलते नहीं हैं इसलिए कमजोर और प्यासे रह जाते हैं।

प्रकृति के दिए हुए हमारे अधिकारों, शक्तियों को पा लेना ही तो धर्म हैं। मानव को मिली इस असीम शक्ति में सबसे पहले उस दिन बाधा और अवरोध उत्पन्न हुए जिस दिन मानव ने पहले पराए गलत आहार (अनाज, दूध, माँसाहार) को अपने गले में उतारा। जैसे-जैसे ये पराए आहार मुख्य आहार बनते चले गये मानव अपने प्रकृति निर्धारित आहार फल मेवों से दूर होता चला गया।
आहार को आग के सम्पर्क में लाकर मानव ने महारोगों की नींव पक्की कर दी। जिस ताकत को हम ताकत समझे हुए हैं वह 25 प्रतिशत भी नहीं हैं जो लोग कम खाते हैं उन्हें ये शक्ति थोड़े प्रतिशत अधिक मिल जाती हैं क्यूंकि थोड़ा अवरोध कम हो जाता हैं जो लोग अधिक खाते हैं उनकी शक्ति अधिक अवरोध के कारण 25 प्रतिशत भी नहीं मिलती ऐसे लोग किसी तरह अपने आप को घसीट लेते हैं चला लेते हैं।

जिस ताकत को हम ताकत कहते हैं, वह वास्तव में लगातार अभ्यास से शरीर को एक विशेष कार्य के लिए तैयार किया गया प्रयास हैं, अधिक वजन उठाना अधिक भागना, अधिक मानसिक श्रम करना, अन्य प्राणियों की तरह स्व- प्रस्फुटित, (प्रयत्न रहित) शक्ति नहीं हैं। स्व- प्रस्फुटित शक्ति (ऊर्जा) इतनी तेजी से बहती है कि हम उछले बिना, भागे बिना, नाचे बिना रह ही नहीं सकते। यह ऊर्जा हमें केवल कुछ ताजे स्वस्थ बालकों में देखने को मिलती हैं।
कभी हमने अपने आप से पूछा हैं कि क्यों ये बालकों जैसी ऊर्जा (शक्ति का बहाव) जवानी में और जवानी के बाद कमजोर हो जाती हैं ? इस कमजोर ऊर्जा को हमने स्वीकार कर लिया हैं यह समझकर कि शायद यही इसकी सीमा होगी।

ताकत का संबंध -

Illusion of strength from grain

ताकत का संबंध कड़क भूख से हैं - भूख से खाए गए आहार से हैं, आहार से मिले प्राण और पोषक तत्व से है और अंत में बचे कम से कम मल से है जो शरीर बहुत आसानी से फ़ेंक देता हैं। शरीर के भीतर बहती शक्ति की धारा, ऊर्जा का बहाव पूरे शरीर में हर पल बहता रहता है। इस ऊर्जा को शक्ति पीछे से निश्चय ही हमारी प्राकृतिक आवश्कताएँ देती रहती हैं किसी एक भी प्राकृतिक तत्व में कमी आने पर यह ऊर्जा लम्बे समय तक पूरी गति से बह नहीं सकती। इस ऊर्जा, बहाव, गति में बाधक बनते हैं अप्राकृतिक असामान्य विषय द्रव्य जो सिर्फ पके हुए अनाज दूध और मांसहार से मिलते हैं।

मांसहार से सबसे अधिक विषद्रव्य मिलते हैं। पके हुए अनाज से दूसरे दर्जे और दूध से तीसरे दर्जे पर, इन आहारों में पाचन के बाद पचने वाले अनुपयोगी विषाक्त द्रव्य ही हमारे सारे शरीर की व्यवस्था को, संतुलन को, ऊर्जा के बहाव को धीरे-धीरे गड़बड़ा देते हैं। सीमा से अधिक विषाक्त द्रव्य शरीर को मिलते रहने के कारण शरीर इन्हें पूरी तरह फ़ेंक नहीं पाता हैं और शरीर में मल संचित करता चला जाता हैं। यही संचित मल धीरे-धीरे शरीर की ऊर्जा शक्ति के बहाव में बाधा बनने लगते हैं और हमें ताकत अनुभव नहीं होती।

हम अस्वाभाविक व्यायाम, भाग दौड़ या व्यसनों (चाय, काफी, तम्बाकू) के द्वारा खींचतान कर शरीर की ऊर्जा को उत्तेजित करते रहते हैं रक्त संचालन बढ़ने के कारण थोड़ा मल विसर्जित होता रहता हैं अस्वाभाविक व्यायाम द्वारा अस्वाभाविक भूख हो जाती है गलत आहार खाने की मात्रा दुगुनी चौगुनी हो जाती है मल संचय भी उसी परिणाम में बढ़ जाता है व्यायाम कम या बंद होते ही शरीर का भारीपन जकड़न, बड़ी-बड़ी बीमारियाँ भयंकर रूप से संचित विषाक्त द्रव्यों की पोल को खोल देती हैं।

विश्व का हर वह व्यक्ति जो अनाज, दूध,मांसहार किसी भी रूप में अपनाए हुए है उसका शरीर कम या अधिक मात्रा में निश्चित रूप से इन आहारों से उपजे विषाक्त मल से भरे हुए हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह हैं कि ये सारे ठोस आहारों के बंद करते ही, शरीर मजबूरी में संचित की हुई बोझ रूपी गंदगी को तुरंत बाहर निकालने का प्रयत्न करता हैं इसलिये चक्कर आना, शरीर में भारीपन का लगना, जीभ मैली हो जाना, दांत चिपचिपे हो जाना, पेशाब बदबूदार हो जाना गंदगी का मल, थूक,कफ के जरिये निकलना इत्यादि कई लक्षण प्रकट हो जाते हैं

इन लक्षणों से भ्रमित होकर, गलत समझकर,शरीर को अपना काम करने देने की बजाय तुरंत ये ही गलत आहार खाकर इन सफाई अभियान के लक्षणों को दबा देते हैं शरीर की शक्ति दुबारा पाचन में व्यस्त हो जाती है और लक्षणों को कम कर देती हैं। हम अपने भ्रम को मजबूत कर देते हैं ये सोचकर कि ताकत केवल इसी आहार से मिलती हैं, छोड़ने से कमजोरी आती हैं, इसलिये एक दिन भी यह आहार छोड़ने की हम भूल तक नहीं करतें। हमारी जीवनी शक्ति जितना अधिक पाचन कार्य में तथा मल निष्कासन में व्यस्त होकर व्यय होगी उतना ही हमें बाहर के कार्यों के लिए कम शक्ति उपलब्ध होगी।

पके हुए अनाज, दूध, मांसहार का यही सबसे प्रमुख दुर्गुण है कि ये अपने पाचन के लिए शरीर से बहुत अधिक शक्ति खर्च करवाते हैं और इन आहारों की पचने के बाद पैदा होने वाली उतनी ही अधिक विषाक्तता को फेंकने में शरीर की सामान्य से कई गुणा अधिक शक्ति खर्च होती हैं। शीघ्र थकान यही से पैदा होती हैं। शीघ्र श्वास का फूलना इसी का सबूत हैं। शरीर की यही शक्ति जब हम बाहर के कार्यो के लिए माँग करते हैं, तब भीतर के पाचन और मल-निष्कासन में शरीर शक्ति लगा नहीं पाता हैं जिससे ये दोनों भीतर कार्य रुक ही जाते हैं या पूरी तरह काम नहीं कर पाते हैं। पाचन और मल-निष्कासन में ही जिस व्यक्ति की जीवन शक्ति रात-दिन जुटी हुई होती हैं। ऐसे व्यक्तियों को शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के लिए अधिक आवश्यक शक्ति नहीं मिलती।
ऐसे लोग 8 घंटे का काम 4 दिनों में करते हैं। यही से मिताहार शब्द को पैदा होना पड़ा जिससे पाचन और मल निष्कासन में हमारी शक्ति अधिक व्यय नहीं हो और बाहर के कार्यो के लिए भरपूर शक्ति प्राप्त हो सके। ये तथ्य इसी बात को साबित करते हैं कि अधिक खाने से अधिक ताकत नहीं मिलती, बल्कि कम खाने से अधिक शक्ति मिलती हैं,परन्तु कम खाना कुछ सालों तक शक्ति तो दे देगा लेकिन स्वास्थ्य नही देगा क्योंकि पराये और गलत आहार पर हमारा शरीर लम्बे समय तक स्वस्थ नहीं रह सकता।

शरीर को जो मिलना चाहिये वह नहीं मिलता (सुपाच्य, शर्करा, विटामिन, क्षारतत्व, इंजाइम इत्यादि) जो नहीं चाहिये वह मिलता हैं। (अम्लता,कोलेस्ट्रोल,असंतुलित रसायन,तत्व, इंजाइम की कमी, आग के रूपांतरित हो गए अनुपयोगी रासानिक विष द्रव्य, इनके पीछे, इनके जरिये जा रहे नमक मसालों चीनी तेल इत्यादि) ये कम खाना भी कौन-सा स्वास्थ्यप्रद साबित होता है? क्या लम्बे समय तक घसीटते हुए जीना स्वास्थ्य है? शरीर धीरे-धीरे इन आहारों से उत्पन्न विषाक्तता के प्रभाव में आ ही जाते हैं।

सिर्फ एकमात्र प्राकृतिक आहार सर्वगुण संपन्न है जो पाचन और मल-निष्कासन में कम से कम शक्ति को खर्च कर अधिक से अधिक शक्ति और पोषण हमें देते हैं और प्राकृतिक आहार से इतनी कम मल की मात्रा बचती हैं कि शरीर में संचय (जमा) होने का कोई रास्ता ही नहीं बचता जिससे अंतिम श्वास तक हमारी असीम शक्तियाँ ऊर्जा में कोई बाधा और अवरोध न आने के कारण भरपूर संवर्धित होकर मिलती है। ऐसे ऊर्जा वाले व्यक्ति अगर सौ साल की उम्र में भी बालकों की तरह उछलते कूदते,जवानों की तरह मेहनत करते नजर आएँ तो आश्चर्य नहीं क्योंकि इस ऊर्जा के हम सच्चे अधिकारी हैं।

अनाज, दूध, मांसहार की विषाक्तता ने इस ऊर्जा को क्षीण करके रख दिया। हमारा रक्त जितना शुद्ध मल रहित होगा हमारे शरीर को कम से कम आहार की आवश्यकता होगी और अधिक से अधिक ऊर्जा हमें लगातार प्राप्त होती ही रहेगी। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक सिर्फ शरीर में ही अंतर आता है शक्ति में विशेष अंतर नहीं आता। शक्ति अपने शुद्ध रूप में जन्म से लेकर मृत्यु तक एक ही गति में प्रवाहित होती रहती है जैसे वृक्षों में और प्राणियों में (अगर बाधा या कमी पैदा नहीं की जाए)।

अनाज का भयंकर नशा - अनाज छोड़ते ही ये लक्षण उभर कर आते हैं जैसे शराबी से शराब छोड़ने से, व्यसनी के व्यसन छोड़ने से कमजोर और अशक्ति महसूस होती हैं अगर 8 - 10 दिन अनाज, शराब या व्यसन का प्रयोग नहीं करते हैं तो ये सारे नशीले लक्षण धीरे-धीरे अपने आप गायब हो जाते हैं और शरीर सामान्य हो जाता हैं। परन्तु छोड़ने के बजाए जैसे ही अनाज, शराब या व्यसन का उपयोग करते हैं। उभरते हुए लक्षण कम हो जाते हैं, और ताकत अनुभव होती हैं।
ये सारे लक्षण अनाज की इस दुर्गुणता को स्पष्ट साबित करते हैं कि उसमें उत्तेजना हैं,नशा हैं, विषाक्तता हैं अनाज के बजाए अगर आप को पेट भर दुगने-चौगुने फल, अंकुरित, मेवे भी खिला दिए जाएँ तो भी आप अनाज जब तक मुहँ में नहीं रखेंगे तब तक ताकत या चैन अनुभव नहीं करेंगें जैसे शराबी, को या व्यसनी को शराब या व्यसन ही शांत करते हैं,अन्य कोई भी तरीके या आहार चैन नहीं देते। खूब फल-मेवे खिलाने के बाद आधी रोटी भी या थोड़ा पका हुआ अनाज अंत में खिला दे तो तृप्ति महसूस होती हैं ऐसा लगता हैं अब थोड़ी शान्ति मिली। ऐसा क्यों ? क्या फल मेवों में ताकत नहीं हैं ? इनकी चौगुनी कैलोरी के मुकाबले आधी रोटी की कैलोरी अधिक हैं? आपके अनाज छोड़ते ही अनाज के बजाए जब आपको फल-सलाद, मेवे खाने को कहा जाता हैं तो खाने की इच्छा ही नहीं होती।

बड़ी मुश्किल से थोड़ा खाएँगे कहंगे भूख नहीं हैं और जैसे ही रोटी चावल सामने लें आएँ तुरंत उसपर टूट पड़ेंगें और दुगना खा लेंगें। अगर असली भूख से खाते तो उचित था, परन्तु आप तो उत्तेजना की माँग करने वाली झूठी भूख के शिकार हैं। इसलिए आपको उत्तेजित करने वाले आहार ही चाहिए। (पका हुआ अनाज, नमक या गर्म भोजन) जो आपके नशें को शांत कर सकें। अंकुरित अनाज में भी उत्तेजना नहीं हैं। पक जाने के बाद ये भी उत्तेजक और विषाक्त बन जाता हैं इसलिए आपको दुगना चौगुना ताजा अंकुरित अनाज भी पके हुए अनाज के बदले दिया जाए तो आप शांत नहीं होंगे, चैन तृप्ति नहीं मिलेगी। वह तृप्ति पकाए हुए अंकुरित अनाज से मिल जाएगी,क्योंकि यह उत्तेजना और विषाक्तता पकाने के कारण ही उत्पन्न होती हैं,

किसी भी कच्चे ताजे आहार में उत्तेजना नहीं होती। यही हाल दूध की विषाक्तक्ता के साथ, मांसहार की विषाक्तता के साथ, नमक, चीनी की विषाक्तता के साथ होता हैं। उसको छोड़ने वाले भी इनके बिना रह नहीं पाते हैं। फल सलाद मेवे अंकुरित छोड़ने से ऐसे कोई रोगकारक लक्षण नहीं उभरतें, न चक्कर आते हैं, बस भूख लगी हैं तो लगातार बनी रहेगी। बल्कि इसके उल्टे कच्चे फीके पालक के पत्ते, लौकी, टिंडे जैसे सामान्य रूप से मस्ती से न खाए जा सकने वाले आहार भी स्वादिष्ट लगते हैं।
प्राकृतिक आहार में और गलत आहार (अनाज दूध मांसहार) में यही मूल भेद हैं कि प्राकृतिक आहार अनुत्तेजक हैं, बाकी सभी उत्तेजक हैं। इसलिए इनके खाने से ताकत का भ्रम पैदा होता हैं। असली ताकत का संबंध अनाज से हैं, यूँ तो चाय पीकर, शराब पीकर व्यसनी भी शरीर को उत्तेजना का हंटर मारकर अधिक काम करवा लेता हैं परन्तु हर उत्तेजना का अंततया शरीर को शिथिलता की और ले जाकर उसे तोड़ता हैं

जितनी दुगनी हमारे साथ उत्तेजना बढ़ती जायेगी उससे चौगुनी शिथिलता पीछे-पीछे जुडती चली जायेगी हम उस उत्तेजना को ही ताकत समझ बैठे हैं। जो अनाज आग में पककर विकृत होकर असंतुलित हो चुका हो,जिसकी शर्करा फलों से भी कम हो,दुष्पाच्य हो,वह कैसे शरीर को ताकत दे सकता हैं। ताकत तो भरपूर शर्करा युक्त चर्बी युक्त आहार से मिलता हैं। प्रोटीन शक्ति नहीं देता, टूट-फुट का निर्माण संभालता हैं और यह क्षमता सिर्फ फलों की तथा मेवों की अत्यंत सुपाच्य शर्करा और चर्बी में हैं।

अनाज से ताकत का भ्रम - पका हुआ अनाज भोजन में से निकलते ही शरीर में जो कमजोरी, चक्कर, वजन का गिरना इत्यादि जैसे लक्षण उभर कर आते हैं ये वास्तव में अनाज से ही निर्मित शरीर में इकट्ठी हुई गंदगी शरीर द्वारा बाहर निकाल देने के कारण शरीर में ये लक्षण उभर आते हैं। और ये तभी उभरते हैं जब ठोस अनाज के पाचन में हर वक्त ऊलझी हुई हमारी शक्ति पाचन में से मुक्त होकर अनाज से ही निर्मित गंदगी के लक्षण, बोझ को फेंकने के लिए मजबूर हो जाती हैं।

शरीर इस मौके की तलाश में ही रहता हैं और ये मौका शरीर को हम कभी नहीं दे पाते हैं बल्कि शरीर खुद ही मजबूर होकर सहनसीमा से बाहर एकत्रित गंदगी के बोझ को हमें पलंग पर गिराकर या खाना बंद करवाकर, कम कर ही देता है। गंदगी होगी तो ही ये लक्षण उभरेंगे, गंदगी नहीं होगी तो क्या उभरेंगे? बल्कि ऐसे लक्षणों का उभारना हमारे भीतर गंदगी लदे होने का प्रमाण है जो सिर्फ हमारे गलत आहार से ही इकटठी होती है। ऐसे लक्षणों के उभरते ही जैसे ही हम फिर ठोस अनाज खा लेते हैं तो शरीर की शक्ति गंदगी निकालने को रोककर फिर पाचन में उलझ जाती हैं। लक्षण कम या गायब हो जाते हैं, शरीर फिर सामान्य लगता हैं हम अपना भ्रम मजबूत कर लेते हैं कि अनाज खाने से ही ताकत आ गई वर्ना में तो मरा जा रहा था।

ये भ्रम की दीवार हमें जिन्दगी भर स्वास्थ्य और शक्ति के वास्तविक संबधं से अपरिचित रखती हैं। और इस भ्रम के कारण लोग प्राकृतिक आहार को नही अपना पाते है और बिमारियों से ग्रसित होकर दुखी जीवन जीते है। इस भ्रम से निकलकर प्राकृतिक आहार अपना कर ही सम्पूर्ण रूप से स्वस्थ रहा जा सकता है। धन्यवाद

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