व्यक्ति का प्यास लगने का (Cause of thirst) सबसे बड़ा कारण पके हुए रूखे-सूखे अनाज ने ही मानव को अधिक पानी पिने की रोगकारक आदत में उलझा दिया,
अन्यथा मानव को पानी पिने की बहुत कम आवश्यकता हैं। प्राकृतिक आहार फल, सलाद, भीगे हुए ताजे मेवों से शुद्ध जल हमें आराम से मिल जाता हैं। पानी पिने की आवश्यकता फिर सिर्फ कठिन परिश्रम पर ही निर्भर रहती हैं। इसका इस तरह अनुभव देखा गया- प्राकृतिक आहार पर रहने के बाद पानी पीना ही मुश्किल हो गया! प्यास ही अनुभव नहीं होती हैं एक आधा गिलास पानी पीते केवल पुरानी आदत और धारणा के कारण! सर्दियों में तो और भी मुश्किल हो गया एक दो घूंट भी मुश्किल से पीते है। केवल गर्मियों में ही, करीब दो ग्लास पानी की आवश्यकता पड़ती थी। भाग दौड़ करने पर भी यह प्यास 4 ग्लास से अधिक नहीं बढ़ती हैं।
एक और मजेदार अनुभव देखा गया कि सामान्य लोगों के मुकाबले पसीना बहुत कम और सीमित निकलता हैं। बहुत कठिन मेहनत के बाद भी थोडा पसीना ही अनुभव होता हैं। इसको हम इस तरह माप सकते हैं- सामान्य आदमी जितना पसीना 10 मिनट की दौड़ के बाद निकालता हैं यही पसीना प्राकृतिक आहारी करीब पौना या 1 घंटे के बाद निकलता हैं। पानी की इतनी कम खपत होती हैं यह भी एक ठोस कारण था कि पसीना अधिक न बहने के कारण पानी की प्यास कम रहती हैं। ये हमारा स्वाभाविक खजाना हैं जिससे हम सभी अंजान हैं। इसके ठीक विपरीत जब हम भोजन करने बैठते हैं तो लोटे, जग और घड़ों को भर-कर पास रख लेते हैं और पीते चले जाते हैं। हर 5-4 निवाले के बाद हम पानी पीते हैं फिर भोजन समाप्त हो जाने के बाद पीते हैं फिर 1-2 ग्लास आधे घंटे और हर 1-2 घंटे बाद फिर उंडेले चले जाते हैं। हमने इस खतरनाक अभ्यास को सामान्य और स्वाभाविक समझ रखा हैं। जो आहार पानी की माँग करवाता हैं वह रोग कारक आहार हैं- मानव आहार नहीं है! आपने कभी यह संदेह ही नहीं किया कि क्यों हमें इतना पानी पीना पड़ता हैं? आहार के इस सिद्धान्त को खूब अच्छी तरह परख लो। जो आहार जितना अधिक पानी की माँग करवाता हैं वह आहार उतना ही रोगकारक हैं।
पानी की प्यास ही अपने आप में इस बात का ठोस सबूत होती हैं कि आहार के पाचन में शरीर को जरूरत से ज्यादा पाचक रस स्त्राव करने पड़ रहे हैं- अनाज से उत्पन्न होने वाली सड़न और विष-द्रव्य को शरीर के एक-एक कोषाणु अधिक रस स्त्राव कर अपने आप को इनके हानिकारक प्रभाव से बचाकर रखने का प्रयत्न करते हैं स्वभावत: अनाज का सेवन करने वालों को पानी हर हालत शरीर को जुटाना ही पड़ता हैं। खाया गया आहार शरीर पर बोझ हैं, दुष्पाच्य हैं।
पानी की माँग बढ़ जाने के कुछ और कारण-
अनाज अच्छी तरह न चबाकर जल्दी खा लिए जाने के कारण पानी द्वारा उसे निकालना पड़ता हैं। केवल रोटी थोड़ी बहुत चबाई जाती हैं। चावल, दलिया, सूजी, दाल इत्यादि को सिर्फ 2-4 दांत मारकर ही निगल लिया जाता है। अनाज के साथ नमक- मसाले जितनी अधिक मात्रा में बढ़ते चले जाते हैं पानी की माँग भी उतनी ही बढ़ती चली जाती हैं। मसालें हमेशा उत्तेजक स्वभाव के कारण न सिर्फ शरीर से अधिक लार स्राव की माँग करते हैं बल्कि आहार में अच्छी तरह पाचक से घुलने के पहले ही मसालें अपनी उत्तेजनाओं से घसीटकर आहार को जल्दी आगे बढ़ा ले जाते हैं। मसालों की उपस्थिति में अनाज का कभी अच्छा पाचन नहीं होता, अनाज हमेशा अधपचा रह जाता हैं उसके कारण पानी की प्यास प्रबल हो जाती हैं।
पाचक का बाधक - (पानी) अनाज के साथ मसालें खाने पर अच्छा पाचन संभव है ही नहीं। बिना मसालें के भी खाए जाने पर अनाज पानी की माँग निश्चित रूप से करवाता हैं। इसलिए खाने के बीच में भी और खाना खाने के तुरंत बाद भी पानी पीना ही पड़ता हैं। बस यह पानी पीना ही पाचन को विकृत कर देता हैं - पानी 5 मिनट के भीतर छोटी आँतों में पहुंच जाता हैं। इसलिये आहार के सारे पाचक रसों को घुलाकर वह अपने साथ बहा ले जाता है और आहार को सड़ने पर या अधपचे रहने पर मजबूर कर देता है। इसलिये जो आहार पानी की माँग करवाता हैं। वह रोगकारक खाद्य है- उस पर पानी का पीना ,उसे और अधिक रोगकारक बना देता हैं। पानी में उबले हुए दलिया, चावल और आलू कम पानी की माँग करवाते हैं। सादी रोटी थोड़ा अधिक पानी की माँग करवाती है। सादे सूखे खाए जाने वाले चने और अधिक पूरी परांठे इससे दुगना पानी की माँग करवाते हैं। तला हुआ, मसालेदार, गरिष्ठ, चर्बी युक्त आहार सबसे अधिक पानी की माँग करवाते हैं। इस तरह क्रमश: ये सभी आहार भी उतने ही अधिक रोगकारक साबित होते हैं।
पानी पीने के अनावश्यक नियम- अनाज के कारण मसालें और मसालों के कारण अनाज ने बैठे बिठाए पानी पीने के फालतू के नियमों के साथ जोड़ दिया। बनावटी- खाना - बनावटी- नियम पहले पानी पियों खाने के साथ मत पियो - 2 घंटे बाद पियो -ज्यादा पियो- कम पियो इत्यादि। बेकार के नियमों में
उलझाकर छोड़ दिया कही पढ़ लिया या किसी ने समझा दिया तो संभल गये अन्यथा पानी- पीने के नियमों की अज्ञानता के कारण नुकसान और रोग बढ़ाए
चले जाते हैं। अनाज,मसालें, नमक और मांसहार के कारण ही खूब पानी पीने का नियम प्रचलित हुआ जो इस बात का प्रमाण है कि हमारा शरीर कितना
विषैला हो जाता हैं। प्राकृतिक आहार की सबसे मजेदार खूबी यही हैं कि न प्यास लगती हैं न पानी पीने के नियमों को जानना पड़ता हैं।
प्रोटीन खाद्य - दूध मेवे,दही, मांस इत्यादि खाए जाने पर करीब 4 घंटे तक पानी नहीं पीना चाहिए क्योंकि ये पेट आमाशय में 4 घंटे तक पचते रहतें हैं। अनाज (स्टार्च) खाने के करीब एक घंटे बाद पानी पीना चाहिए तब तक वह छोटी आँतों में पहुंच जाता हैं। फल खाने के आधा घंटे बाद पानी पिया जा सकता हैं। अनाज एवं सामान्य आहार में उलझे लगे को यह नियम जाने और अपनाए बिना कोई चारा नहीं हैं कि खाने के आधे घंटा पहले पानी पिएँ। खाने के साथ 2-4 घूंट से अधिक पानी नहीं पिएँ - इसकी आवश्यकता पड़ती ही हैं। खाने के बाद सिर्फ 1 घूंट पानी पिएँ। खाने के एक-डेढ़ घंटे बाद आवश्यकतानुसार पानी पिएँ। खाना अच्छी तरह चबाकर पानी की प्यास को और कम किया जा सकता हैं। नमक-मसालें त्यागकर इससे भी कम! रोग सूत्र इस प्रकार हैं- ''जो आहार पानी की माँग करता हैं वह उस आहार के शत-प्रतिशत रोगकारक, विषाक्त होने का ठोस प्रमाण हैं। प्राकृतिक आहारी को कम से कम पानी की आवश्यकता होती हैं।''
जितनी प्यास उतना ही पानी पियो - यह सामान्य बुद्धि का नियम हैं। जो चिकित्सक वर्ग अधिक पानी पीने की राय देता हैं वह, तोता हैं, रटाया पाठ पढ़ रहा हैं- गलत आहार के नशे में बोल रहा हैं- अंधानुकरण कर रहा हैं। इसके भ्रम, अंधविश्वास को गले में लटकाने से पहले आप स्वंय सामान्य बुद्धि से निर्णय स्वंय लें। शरीर में पानी के लिए क्या कोई कानून नहीं हैं,जो जितनी मर्जी आए उड़ेले चले जाओ। शरीर पानी का एक विशेष संतुलन बनाए रखता हैं
- एक-एक बूंद का हिसाब करता हैं ''एक बूंद भी बोझ बन सकती हैं'' प्यास आवश्यकता से अधिक पानी पिए जाने पर शरीर अपने सारे स्वाभाविक कार्य छोड़कर जरूरत से ज्यादा आ गए पानी को पहले जल्दी से जल्दी धकेलने की कोशिश करता हैं क्योंकि शरीर को अपना जल का संतुलन बनाए रखना हैं। सबसे बड़ा नुकसान तो इस बात का होता हैं कि शरीर की जो शक्ति मूत्र के द्वारा गंदगी फेंकने में लगनी चाहिए थी, वो ही शक्ति मल- निष्कासन रोककर (छोडकर) पहले पानी फेंकते रहने पर लग जाती हैं। क्योंकि पानी शरीर के संतुलन पर एक बोझ के रूप में आ गया हैं।
हमें बार-बार पेशाब होता रहता हैं - हम समझते हैं, गुर्दे साफ हो रहें हैं। जी हाँ ! आपके गुर्दे ही सफाचट होकर नष्ट हो रहे हैं। सैकड़ों मरीजों पर प्रयोग दुहराने के बाद ही इसकी चर्चा की गई हैं - और भी हानिकारक तकनीकी पक्ष हैं -अनाज- मसालों- दवाओं की विषाक्तता के कारण भयभीत होकर सारे चिकित्सा वर्ग अधिक पानी पीने कि राय देते हैं। क्या यह अपने आप में काफी ठोस सबूत नहीं हैं कि ये सब खाद्य (अखाद्य) रोगकारक स्वास्थ्य विरोधी हैं। हम लोग पहले तो गलत आहार खा लेते हैं गलत आहार खाने से शरीर में पानी की आग लगती हैं और हम बिना सोचे समझे पानी पी लेते हैं फिर वो रोगकारक प्यास हमारे शरीर में सैकड़ो बीमारियों को आने का मौका दे देती हैं और हमारा शरीर कमजोर होकर बीमारियों का सामना नहीं कर पाता हैं। प्रकृति ने हमारे लिए प्राकृतिक पानी से भरपूर आहार तैयार कियें हैं, जिस आहार में अपना खुद का प्राकृतिक पानी नहीं हैं,ताजगी नहीं हैं, वह मानव आहार नहीं हैं। जिस आहार को खाने के लिए बाहर से पानी मिलाना पड़े, वह निश्चय ही बनावटी, स्वास्थ्यदायक आहार नहीं हैं। क्योंकि इन्हें हम किसी तरह खाने की कोशिश करते हैं। ताजे फल मेंवों को खाने की बनावटी कोशिश नहीं करनी पड़ती। अनाज बिना पानी से कभी नहीं खाए जा सकते इसलिए वह रोगकारक प्यास के जिम्मेदार हैं।
आहार का एकमात्र नियम हैं प्राणवान और ताजगी - क्या पके हुए अनाज, उबले हुए दूध, सड़े और पके हुए मांस इस कानून में खरे उतरते हैं? अच्छी तरह विचारिये जो शरीर जितना अधिक विषाक्तता से भरा होगा वह उतना ही अधिक पानी की माँग करेगा जो शरीर जितना शुद्ध विषमुक्त होगा वह उतना ही कम से कम पानी की माँग करेगा। अगर आप अधिक पानी पीने के आदि हैं तो निश्चय समझ लीजिए -आप रोगी हैं रोगकारक आहारों से जुड़ें हैं। रेल-बस में यात्रा के समय पानी की समस्या सबसे गंभीर होती हैं विशेषकर शुद्ध अच्छे पानी की। हमें अपने साथ पानी के छोटे- मोटे घड़े ढोने पड़ते हैं बार-बार हर स्टेशन पर, उतरकर पानी के भागदौड करनी पड़ती हैं,धक्का-मुक्की भी करनी पड़ती हैं, कितने कष्ट झेलने पड़ते हैं यह हर यात्री अच्छी तरह जानता हैं -
इतनी मेहनत के बाद भी हमें मिलता है, गंदा,दूषित, अलग-अलग कुँओं का बेस्वाद या रसायन मिला हुआ पानी ! मजबूरी वश हम यह पानी पीने में जरा भी नहीं हिचकिचाते, जानते हैं इस नारकीय कष्ट, दुःख का जिम्मेदार कौन हैं - रोगकारक प्यास अर्थात पके हुए अनाज - जो पानी बगैर निगले ही नहीं जा सकते अनाज खाते रहते हैं - प्यास लगती रहती हैं - पानी ढूढ़ते रहते हैं। (रोग उठा लाते हैं) अपनी हर यात्रा को सुगम, आनन्द मस्ती से भरपूर बना सकते हैं - यात्रा में अनाज या अन्य खाद्य कभी साथ मत लें जाइये। प्राकृतिक आहार फल, सलाद, अंकुरित जितना चाहिए-खाइए-पानी की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी- इतना ही नहीं सफर में सर्दी-गर्मी भी अधिक अनुभव नहीं होगा और थकावट तो बिलकुल नहीं- केवल ताजगी ही ताजगी।
घोर प्रदूषण से बचाव- आज जहाँ शहरों का पानी इतना दूषित प्राणविहिन और रसायनों से युक्त हो चुका हैं कि जानवरों के भी पीने योग्य नहीं रह गया हैं गाँवों का कुँओं का पानी भी विविध खनिज तत्वों के कारण स्वास्थ्यकारक नहीं होता- अधिकतर कुएँ के पानी दूषित होते हैं - मजबूरी वश हमें पीना ही पड़ता हैं और मुफ्त में रोग मोल लेना ही पड़ता हैं। कौन मजबूर कर रहा हैं हमें ऐसा नारकीय कष्ट, विवशपूर्ण जीवन जीने के लिए? हमारी खुद की रोगकारक आदतें ही! मानव को इतने अधिक पानी की आवश्यकता ही नहीं थी- न अनाज खाता- न खेती होती- न सिंचाई हेतु कुएँ खोदने पड़ते- न पानी पीने की रोगकारक फालतू प्यास लगती (अनाज और मसालों के कारण) न इतने सारे पानी की फालतू व्यवस्था एवं मेहनत करनी पड़ती। सिर्फ एक अनाज के उपयोग ने हमारे जीवन को कितना कष्टपूर्ण बना दिया। पानी का कितना आवश्यक ही गुलाम बना दिया। फलों के खेती की कुदरत खुद ही बरसात द्वारा सिंचाई कर देती हैं। फलों की खेती के लिए बरसात का पानी ही पर्याप्त हो जाता हैं।
अनाज से तो रोग मिले ही और दूषित पानी से रोग और अलग से। आज के हवा-पानी आहार के घोर प्रदूषण में अपने स्वास्थ्य को बचाने का एक मात्र तरीका है प्राकृतिक जल से भरपूर,प्राणवान,प्राकृतिक आहर का सेवन, अनाज और मसालों से मुक्ति, ताकि हमारा शरीर सही पोषण तत्व पाकर विरोधी वातावरण में भी लड़ते हुए अपने आपको सुरक्षित रख सकें। प्राकृतिक आहार यानी भीतरी प्रदूषण और बाहरी प्रदूषण से सदा मुक्ति। अनाज का उपयोग यानी भरपूर शारीरिक प्रदूषण- बाहर का। प्रदूषण पहले ही हमें चारों और से मार कर कमजोर कर रहा हैं- बाहर के प्रदूषण का भले उपाय नहीं कर सकते- अनाज और गलत आहार से मुक्त होकर भीतरी प्रदूषण को सिर्फ आप ही रोक सकते हैं। घोर प्रदूषण में ऑक्सीजन की कमी होने के बावजूद प्राकृतिक आहार से हमारे शरीर को खूब ऑक्सीजन मिलता हैं। बिना प्यास के हमें पानी नहीं पीना चाहिए क्योंकि बिना प्यास के पीया हुआ पानी पचता नहीं हैं।हम
सोचते हैं कि हमारे पेट की सफाई हो रही हैं लेकिन ऐसा नहीं होता हैं वहाँ कुछ और ही होता हैं पेट की सफाई की जगह शरीर नष्ट हो रहा होता हैं। और जो पचता नहीं हैं वो कुछ बीमारियों का विकराल रूप लें के ही खड़ा होता हैं। पूरा शरीर नष्ट हो जाता हैं। और हमें अपनी प्यास सिर्फ पानी से ही नहीं बुझानी हैं हमें प्राकृतिक फल खा के उस के रस से अपनी प्यास बुझानी हैं और हमेशा स्वस्थ रहना हैं। क्योंकि हमेशा स्वस्थ रहने के लिए पीने का पानी स्वच्छ चाहिए।
स्वच्छ जल पीने के लिए हमें बरसात का जल सबसे उत्तम हैं। क्योंकि वो जल पीने के लिए हमारे स्वास्थ्य के लिए सबसे उत्तम हैं। हेडपम्प का पानी सबसे खराब हैं क्योंकि वो मोटा होता हैं भारी हैं। स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हैं। सैंकड़ो बीमारियों का घर बनता हैं। और कुओं का पानी भी सेहत के लिए खराब हैं। पर हेडपम्प के पानी से थोड़ा सही हैं सबसे (best) बरसात का पानी हैं। क्योंकि हमें आगे जाके कोई भी बीमारियों का सामना नहीं करना पड़ें और हमेशा स्वस्थ रहें। और जीवन भर ख़ुशी से जी सके और जीवन का मजा लें सकें।