फास्ट फूड(fast food)और पैक्ड फूड का कड़वा सच

फास्ट फूड(fast food)और पैक्ड फूड का कड़वा सच

फ़ास्ट फूड (fast food)और पैक्ड फूड का कडवा सच - मृत्यु से भयंकर

यह शीर्षक पढ़ कर आप चौंक गये न कि भला ऐसा भी क्या हो सकता है कि जो मृत्यु से भी भयंकर हो। मृत्यु से भी भयंकर तो कुछ ऐसा ही हो सकता है, जो व्यक्ति के मर जाने के बाद भी अपनी भयंकरता या विकरालता के साथ विद्यमान रहे। हमारे बीच अनेक ऐसे तत्व है, जो इसी श्रेणी में आ रहे है। इनकी भयावह मृत्यु से भी कहीं आगे है। मृत्यु के बाद तो एक जीवन समाप्त होता है किन्तु ये कारक भावी पीढियों पर भी अपना दुष्प्रभाव बनाये रखते है।आज में आपके समक्ष कुछ ऐसे ज्वलंत प्रश्न रखने जा रहा हूँ, जो भले ही अनुत्तरित रहें किन्तु इतना तो निश्चित है कि मेरे इन प्रश्नों को सुनने व इस पुरे पाठ को पढने के बाद आप एक क्षण के लिए इस विषय पर विचार करने के लिए विवश अवश्य हो जायेंगे।
में आज के माता-पिता से पूछना चाहता हूँ कि क्या उन्होंने कभी यह सोचने की कोशिश की है कि उनके बच्चे इतने नाजुक क्यों है? उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता इतनी कमजोर क्यों है कि उन्हें बीमार पड़ते देर नहीं लगती? वे सभी प्रकार के विटामिनों की गोलियों लेते है, डिब्बाबंद जूस पीते है, वातानुकूलित कक्षों में रहते है, जन्म से पहले से लेकर अब तक, हर प्रकार की चिकित्सकीय सुविधाएँ पाते है, उनको रहने के लिए बेहतर परिवेश व साफ-सुथरा माहौल मिलता है, हर तरह का स्वादिष्ट भोजन खाने को दिया जाता है। उनके पास संसार की वे सभी सुख-सुविधाए मौजूद है, जिनकी कामना हर व्यक्ति करता है परन्तु आज से दस-बारह साल पहले वाले बच्चों से यदि उनकी तुलना करें तो वे उनके मुकाबले ज्यादा बीमार पड़ते है। उनके शरीर भले ही फुले हुए और गदबदे लगें पर भीतर से वे खोखले है। उनकी हल्की-फुल्की बीमारी की भी ठीक होने में बहुत समय लग जाता है। उनका मानसिक व बौद्धिक विकास भी अन्य बच्चों की तुलना में बेहद कम है। बेशक आप भी इन प्रश्नों के उत्तर जानना चाहेंगे...है न!
यदि सचमुच ये सच्चाई जानना चाहते है तो आपको एक कहानी और सुननी होगी,जिसका शीर्षक है- ब्रेन में घोटाला
ब्रेन यानि मस्तिष्क (दिमाग) और घोटाले का मतलब है 'गड़बड़ होना'। यह कहानी सन 1908 की है इसके नायक है, सुजुकी ब्रदर्स। ये दोनों जापानी भाई एक चीनी रेस्त्रां के मालिक थे। प्राय: रेस्त्रां में आने वाले ग्राहकों को खाद्य पदार्थ परोसने के बाद वे उनके हावभाव और व्यवहार की निगरानी करते । ये दोनों भाइयों के वातार्लाप पर गौर करें: पहला भाई - भाई !तुमने देखा कि आज भी कितने कम ग्राहक आए और बस नाममात्र का ही भोजन किया। दूसरा भाई - हां, लगता है कि इनके पेट चीटियों के पेट जैसे है जो जरा सा खाना खाते ही भर जाते है। पहला भाई -पर यदि यही सिलसिला जारी रहा तो रेस्त्रां पर ताला लगाने की नौबत आ जाएगी। दूसरा भाई - नहीं -नहीं, हम कोई न कोई ऐसा तरीका खोज निकालेंगे कि लोग हमारा खाना ज्यादा से ज्यादा मात्रा में खायेंगे। वे जितना खायेंगे,हमारा लाभ उतना ही बढ़ जायेगा।
उस दिन तो दोनों भाइयों ने अपने मन की बात कह कर दिल हल्का कर लिया किन्तु दुसरे भाई के दिमाग में बात बैठ गई। वह उसी शाम अपने एक वैज्ञानिक दोस्त से मिला और उसे भाई से मिलवाने ले आया। पहले भाई ने वैज्ञानिक से कहा "मित्र! कोई ऐसा चमत्कार कर दो कि हमारे यहाँ आने वाले को इतनी भूख लगे कि हमारा बनाया सारा खाना खत्म हो जाया करे।" वैज्ञानिक उन्हें तसल्ली दे कर लौट गया और कुछ दिनों के बाद मिलने को कहा। इसी तरह कुछ समय बीत गया और एक दिन वैज्ञानिक उनके रेस्त्रां में पहुंचा। उसने दोनों भाइयों के सामने एक शीशी रख दी जिसमें कोई रसायन भरा था। उसका नाम था 'एमएसजी' या मोनो सोडियम ग्लूटामेट।
वैज्ञानिक बोला," आपको बस इतना करना है कि जो भी पकाए, उसमें इसकी जरा सी मात्रा मिला दें। इसके नतीजे शाम तक आपके सामने होंगे।"वह दिन दोनों भाइयों के लिए बड़ा ही शुभ रहा। दोपहर होते-होते सारा खाना खत्म हो गया। रेस्त्रां में खाना खाने वाले लोग बार-बार वही व्यंजन स्वाद से खा रहे थे। उस दिन के बाद से उन भाइयों की मुसीबत तो दूर हो गई पर उन्होंने सारी दुनिया के सामने ऐसी परिस्थतियाँ पैदा कर दी, जिनसे हम चाह कर भी निकल नहीं सकते । अब आपको बताता हूँ कि उस एमएसजी ने कमाल कैसे दिखाया।
दरअसल, दिमाग हमारे पेट को सन्देश देता है कि उसे भूख लगी है तब पेट को भूख का एहसास होता है और हमें लगता है कि कुछ खा लें। जब हम भरपेट खा लेते है तो दिमाग से पेट को संदेश जाता है कि खाना बंद करो, पेट भर गया। हम इसे समझने के लिए ट्रेफिक सिग्नल का उदाहरण लेते है। मान लेते है कि ट्रेफिक सिग्नल में दो सिग्नल है- लाल और हरा!
अब कल्पना करें कि जब हमारे शरीर में ऊर्जा की कमी होने लगती है, तो उस समय हरा सिग्नल चालू हो जाता है और दिमाग में ग्रेहलिन नामक हार्मोन बनने लगता है, जो पेट को संदेश देता है कि कुछ खाओ। हम भूख महसूस करके कुछ खाने लगते है और जैसे ही भरपेट खा लेते है तो फिर से मस्तिष्क एक लाल सिग्नल देता है यानि खाना बंद करो। तुमने पर्याप्त मात्रा में खा लिया है। तब दिमाग में लैफ्टिन नामक हार्मोन बनता है। जब हम एमएसजी युक्त कोई भी खाद्य पदार्थ खाते है तो जीभ पर स्वाद या नाक में उसकी गंध आते ही दिमाग में हरा सिग्नल जल जाता है ग्रेहलिन हार्मोन बनने लगता है। लाल सिग्नल बंद ही रहता है यानि पेट को भरने का एहसास ही नहीं होता है। कुछ भी खाने के थोड़ी देरबाद भी और खाने की इच्छा पैदा होती है।
यदि हम इसी एमएसजी का सेवन लगातार कुछ साल तक करते रहें तो लाल सिग्नल हमेशा के लिए खत्म हो जाता है। तभी तो बच्चे दिन भर खाते रहते है। फिर भी उनकी भूख नहीं मिटती है। कहने का तात्पर्य यह है कि उन्हें भोजन के बाद मिलने वाली संतुष्टि का अनुभव हो ही नहीं पाता है। आजकल बाजार में पाए जाने वाले फ़ास्ट फूड और पैक्ड खाद्य पदार्थ की लोकप्रियता का यही प्रमुख कारण है। बच्चे चिप्स,पिज्जा, बर्गर,फ्रेंच फ्राईज, कोल्डड्रिंक,नुडल्स व चोकलेट वगैरह के दीवाने है और ऐसे सभी खाद्य पदार्थों में यह एमएसजी नामक रसायन पाया जाता है। यदि आप एक गृहिणी है तो आपने अवश्य ही कोशिश की होगी कि अपने बच्चे को बाजार से पिज्जा दिलवाने की बजाय घर पर ही बना कर खिलाये ।
आश्चर्य की बात यह है कि घर में सारी उपयुक्त सामग्री से बना पिज्जा भी बच्चों को नही लुभा पाता है और उनका एक ही उत्तर मिलता है "मम्मी !आपके हाथ के बने पिज्जा में वह स्वाद कहाँ, जो मेक्डोनाल्ड या अन्य दुकानों के पिज्जा में आता है।" इसका कारण यह है कि आप घर के बने पिज्जा में एमएसजी नहीं मिलाती। उसी एक केमिकल के अभाव में पूरा स्वाद नहीं मिलता है।

यदि मिटटी में भी एमएसजी मिला कर खिलाया जाए तो यकीनन आप उस मिटटी के स्वाद के दीवाने हो जायेंगे और उसे बार-बार खाना चाहेंगे। इसे 'झूठा स्वाद' या 'फाल्स टेस्ट' कहते है।

जब भी हम मेक्डोनाल्ड,डोमिनोज व पिज्जाहट, के सामने से गुजरते है तो वहां एक अलग सी महक आती है और हमारे दिमाग में ग्रेहलिन नामक हार्मोन बनने लगता है। और पेट को सन्देश आता है कि तुन्हें भूख लगी है, कुछ खा लो। यानि स्पष्ट है कि एमएसजी के कारण मोटापा, ह्रदय रोग, मधुमेह,मानसिक, रोग जैसे कई जीवनशैली जनित रोग पनप रहे है।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियां बड़ी तेजी से अपने स्वाद और सुगंध का यह जाल फैला रही है। आज शायद ही कोई ऐसा घर बचा होगा। जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इनकी चपेट में नहीं हो! बच्चे स्वास्थ्यवर्द्धक फल व सब्जियां खाने के बजाय कोल्डड्रिंक, चिप्स, बर्गर,पिज्जा, नुडल्स आदि से पेट भर लेते है और फिर जब भूख नहीं मिटती है तो बार-बार वही चीजें खाते है। इस तरह के दुष्चक्र कभी खत्म ही नहीं हो पाता है।
इस अध्याय के आरंभ में मैने आपसे जो प्रश्न पूछा था, अब उसका उत्तर आपको मेरी इस कहानी से मिल गया होगा। यही कारण है कि आज हमारे बच्चों में रोग प्रतिरोधक क्षमता न के बराबर रह है। वे बार-बार और जल्दी बीमार पड़ते है और बीमार पड़ने पर आसानी से जल्दी ठीक भी नही होते। हमारे शरीर में स्वयं को आरोग्य प्रदान करने वाला तन्त्र इतना कमजोर हो गया है कि वह पूरी क्षमता से कार्य ही नहीं कर पाता है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां नित नए लुभावने विज्ञापनों की रंग-बिरंगी दुनिया के माध्यम से बच्चों के कोमल मस्तिष्क को अपनी जकड़ में लपेटे हुए है। बाजार में मिलते फ़ास्ट फूड पैकेट बंद खाद्य पदार्थों के मोहजाल में फंसे बच्चे घर का खाना और ताजे फल-सब्जियां खाने से इंकार कर देते है। वे प्यास लगने पर कोल्डड्रिंक पिते है और भूख लगने पर चिप्स खाते है। अब आप अपने बच्चों को इस दुष्चक्र से निकालना चाहते है या नहीं? यह हम पूरी तरह से आप पर छोड़ते है।

आप ये पोस्ट पढ़ कर हैरत में पड़ गये होंगे पर जो सच है वो आपके सामने है। अब ये आप पर निर्भर करता है कि आप इस पोस्ट को पढने कम से कम अपने बच्चों का तो ख्याल रखें कि उन्हें क्या खिला रहे है। और हम आप से सिर्फ इतना सपोर्ट मांगते है। कि आप इस पोस्ट को शेयर जरुर करे। और हमारे मनोबल को बढ़ाएं। हम आपके लिए और भी स्वास्थ्यवर्द्धक जानकारियां जुटाते रहेंगे। धन्यवाद

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