acute disease

तीव्र रोग (acute disease) होने का कारण

तीव्र रोग (acute disease) होने का कारण तीव्र रोग आने पर मानव माँ प्रकृति के विधान को न अपनाकर मोटे तौर पर तीन तरह की गलतियाँ करता हैं?

पहली गलती अपने दैनिक कार्य में लगे रहना तथा अपनी अवस्थता पर ध्यान ही न देना। व्यक्ति दर्द नाशक उत्तेजन पदार्थ लेकर दैनिक कार्य में लग जाता हैं। क्योंकि उसका मन काम धंधे को अधिक महत्व देता हैं। ऐसा करने से उसका दैनिक कार्य तो चल जाता हैं, परन्तु शरीर के अंदर की सफाई का काम रुक जाता हैं। तीव्र रोगों की अवस्था में शरीर अपनी सफाई एक नियमित सिद्धांत के आधार पर करता हैं जो कि इस प्रकार हैं, शक्ति वितरण का सिद्धांत माँ प्रकृति के इस रहस्य को गहराई से समझना हैं। जैसे,जब हमारे घर में सफेदी, रंग रोगन विशेष सफाई का कार्य चलता हैं तब हमारा समय और शक्ति अधिक लगते हैं। और हमारे रोजाना के कई काम बाधित हो जाते हैं। जैसे हमारे घरों में इनवर्टर लगे होते हैं। बिजली जाने की अवस्था में इनवर्टर की शक्ति सीमित होने के कारण हम केवल पंखे और ट्यूबें चलाते हैं। अगर किसी विशेष परिस्थिति में टी.वी या फ्रिज चलाना पड़ जाए तो पंखे ट्यूबें बंद करनी पड़ती हैं। ठीक ऐसे ही तीव्र रोगों का बुखार, जुखाम, उल्टी, दस्त, नजला, आदि की अवस्था में हमारी जीवनी शक्ति को जो हमें एक दिन के लिए मिलती हैं,अंदर की विशेष सफाई के लिए लगा दिया जाता हैं और हमारी टाँगों- बाहों में कमजोरी महसूस होती हैं। इस अवस्था में अगर अधिक परिश्रम वाला काम न किया जाय और यथा संभव विश्राम किया जाय तो केवल दो-तीन दिन में अंदर की सफाई हो जाने से हाथ -पैर आदि की शक्ति वापस लौट आती हैं। माँ प्रकृति के इस रहस्य को शक्ति वितरण का सिद्धांत कहा जाता हैं। दूसरी गलती तीव्र रोग की अवस्था में भोजन लेना। तीव्र रोगों नजला, जुखाम, उल्टी, दस्त, बुखार आदि की अवस्था में माँ प्रकृति द्वारा व्यक्ति की भूख को मार दिया जाता हैं। माँ प्रकृति कोई भी रोग बिना चेतावनी दिए नहीं भेजती। आमतौर पर हार्ट अटैक होने से वर्षो पहले एंजाईना पेन के रूप में चेतावनी दी जाती हैं। यह व्यक्ति पर निर्भर हैं कि वह उसको समझे या न समझे और संभले या न संभले। तीव्र रोग की अवस्था में माँ प्रकृति द्वारा व्यक्ति के मुहँ के स्वाद को भी बदल दिया जाता हैं। हर पदार्थ का स्वाद बदला-बदला सा लगता हैं। पानी भी कड़वा लगता हैं। अर्थात पानी भी ठीक से नहीं पच सकता तो भोजन कहा से पचेगा? जब हमें घर वाले कहते हैं या मानते हैं कि भोजन में शक्ति होती हैं और हम भोजन ले लेते हैं तो वही प्राणशक्ति जो विशेष सफाई के लिए अंदर लगी हुई थी। वह भोजन को हजम करने में लग जाती जिससे विशेष सफाई के काम में रुकावट आ जाती हैं। इस बात को प्रमाणित करने के लिए सभी जीव-जन्तु हैं। मानव के अलावा किसी जीव के लिए भी अस्पताल, दवाइयां, प्रयोगशालाएं या जांच नहीं हैं। मानव के अलावा सभी जीव-जन्तु स्वस्थ रहते हैं। क्या विचारणीय विषय नहीं हैं कि मानव के लिए यह सब कुछ होते हुए भी रोगी रहता हैं? ऐसा क्यों? जिन लोगों ने अपने घर में गाय, भैंस, कुत्ता या बिल्ली पाली हैं उनको यह अच्छी तरह मालूम हैं कि अगर गाय को बुखार हो जाएँ या चोट लग जाए तो बढ़िया हरी घास भी नहीं खाती। अर्थात पशु-पक्षियों को भी अंत प्रवृति से महसूस हो जाता हैं कि ऐसी अवस्था में उसकी पूरी प्राणशक्ति अंदर की मरम्मत करने की तरफ मुड़ जाती हैं, पर उस समय भोजन करने से वह प्राणशक्ति उस भोजन को पचाने में लग जाती हैं जिससे चोट या बुखार को ठीक करने का काम रुक जाता हैं। माँ प्रकृति के इस निर्देश को भूलकर मानव रोग की अवस्था में भी हमेशा की तरह भोजन करता रहता हैं। तीसरी गलती दवाई लेना। जब कभी व्यक्ति रात में किसी दावत पार्टी आदि में जाते हैं, तो वहाँ पर सभी तरह के व्यंजनों को चख-चख कर भूख से ज्यादा खा लेते हैं। इस तरह भोजन भली भांति पचता नहीं परिणामस्वरूप प्राणशक्ति उस गंदगी को अगली सुबह दस्त के रूप में बाहर निकालने का प्रयास करती हैं। उसी समय व्यक्ति डॉक्टर के पास जाकर कहता हैं कि रात को पार्टी में उल्टा-सीधा खा लिया था, इसलिए दस्त लग गये अब दस्त बंद करने की दवाई दे दीजिए इस तरह वह गंदगी को रोकने की दवाई माँगता हैं। परिणाम स्वरूप वही गंदगी कब्ज का रूप धारण करती हैं और आगे चलकर बवासीर बनती हैं। जुखाम की अवस्था में माँ प्रकृति पहले के चार रास्तों के अलावा एक पांचवा रास्ता अपनाती हैं। बलगम को नाक के द्वारा बाहर निकाला जाता हैं। हम अपने दैनिक जीवन में देखते हैं की नजला, जुखाम, गला खराब, बुखार, कनपेड फोड़ा-फुंसी आदि तीव्र रोग बच्चों को अधिक होते हैं। बच्चे का शरीर निर्मल होता हैं। जैसे सफेद कपड़े पर गंदगी जल्दी दिखाई देती हैं। इसकी अपेक्षा रंगदार कपड़े पर गंदगी होने पर भी कम दिखाई देती हैं। ठीक ऐसे ही बच्चे का शरीर निर्मल होने का कारण उसको तुरंत कोई न कोई तीव्र रोग आ जाता हैं। इसलिये पुराने समय में या आज भी गाँवों में बच्चों की नाक अधिकतर बहती मिलती हैं। इसकी अपेक्षा शहरों में हम सब पढ़े-लिखे और समझदार से हैं डॉक्टर के पास जाकर फ़ीस देने की जरूरत नहीं समझते। घर से ही कोई न कोई जुखाम की पीने वाली दवा एक चम्मच बच्चे को पिला देते हैं और बच्चे की नाक बहती बंद हो जाती हैं क्या पहले के दिनों में हमारे बुजुर्गो को बच्चों का पालन-पोषण नहीं करना आता था? ऐसा नहीं हैं। जब हम, जुखाम के द्वारा जो मल बाहर निकालना था, उस गंदगी को कोई दवाई लेकर अंदर ही दबा देते हैं तो वही गंदगी आगे चलकर मंद रोग या मारक रोग अर्थात खाँसी, दमा, टीबी या कैंसर का रूप का धारण कर लेती हैं। अगर जुखाम के समय जुखाम की, दस्त के समय दस्त की और बुखार के समय बुखार की दवाई न खाई जाए तो कैंसर जैसा मारक रोग नहीं हो सकता। तीव्र रोगों का समाधान - पेट की गीली पट्टी पेड़-पौधों के पत्ते सूखने पर पानी उनकी जड़ में डालने से पूरे पेड़- पौधों को लाभ होता हैं पत्तो के ऊपर डालने से नही ऐसे ही मानव शरीर की जड़ तो पेट हैं हमारे शरीर के महत्वपूर्ण अंग (VITAL ORGANS) और पाचन क्रिया सम्बन्धी अंग जैसे कि जिगर (LIVER) आमाशय, छोटी आंत, बड़ी आंत,गुर्दे, पित्त की थैली (GALL BLADDER) तिल्ली, (pancreas) आदि पेट में ही हैं। पचने के बाद ही पौष्टिक भोजन से पूरे शरीर को पोषण तत्व मिलते हैं। अगर पेट अर्थात् पाचन क्रिया ठीक होगी तो पूरा शरीर तथा सभी रोग अपने आप ठीक हो जायेंगे। पेट की पट्टी लगाने से उपरोक्त बताए गये सभी महत्वपूर्ण अंगों की कार्यकुशलता बढ़ती हैं। सूजन उतर जाती हैं, आँतों में रुका हुआ मल निकल जाता हैं पेट में रुकी हुई गंदी वायु पट्टी लगाते ही निकलने लगती हैं। जो अनुभव तुरंत और प्रत्यक्ष होता हैं। स्वस्थ व्यक्ति को भी लाभ होता हैं।

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पट्टी लगाने की विधि - एक सफेद मोटा सूती कपड़ा (चादरनुमा) लगभग पूरे पेट पर आ जाना चाहिए इतना लीजिए और कपड़े की लम्बाई को चार तहकर ले। और साधारण ठंडे पानी में भिगोकर तथा निचोड़कर व्यक्ति के पूरे पेट पर नाभि को बीच में रखकर आधी पट्टी नाभि से ऊपर और आधी नाभि से नीचे होनी चाहिए। कमर से घुमाकर लपेट लें जैसे नहाने के बाद तौलिया लपेटते हैं। यदि सर्दी बहुत हैं अथवा रोगी बहुत कमजोर हैं तो गीली पट्टी के ऊपर कोई पतला तौलिया या ऊनी कपड़ा लपेटे आवश्कता के अनुसार ऊपर से कपड़े पहन कर अपना कोई भी दैनिक कार्य या आराम करें। यह पट्टी दीन में तीन या चार बार लगाएं। पट्टी भोजन से पहले लगाना अधिक अच्छा हैं परन्तु ऐसा संभव न हो तो दिन में किसी भी समय लगाई जा सकती हैं। केवल इस बात का ध्यान रखना हैं कि जिस समय पट्टी लगी हुई हो, उस समय कुछ खाना -पीना नहीं हैं। यदि खाना ठीक से न पचता हो तो पट्टी को खाना खाने के बाद लगाने पर खाना हजम करने में सहायता मिलती हैं। आपातकाल स्थिति एवं तीव्र रोग की अवस्था में शरीर पर बंधी गीली पट्टी के भाग को वायु के संपर्क में रहने दें। अर्थात् गीली पट्टी को सामान्य कपड़े से न ढकें। पाकृतिक चिकित्सा पद्धतियों में गीली पट्टी का प्रयोग आमतौर पर बताया जाता हैं। परन्तु आजकल के व्यस्त जीवन में उपयुक्त मिट्टी को ढूँढना, घर में रखना, साफ़ करना असुविधाजनक हैं मिट्टी की पट्टी में भी विशेष लाभ तो पानी से ही होता हैं यही लाभ गीले कपड़े की पट्टी से लिया जा सकता हैं। यह करने में भी आसान हैं।

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